बुजुर्ग अक्सर शिकायत से भरे होते हैं. ऐसा कम ही होता है कि कोई बडी उम्र का अनुभवी युवाओं के साथ पूरी शिद्धत से मौजूद रहे. कृष्णन दुबे जी ऐसे ही बुजुर्ग हैं. शायद ऐसे ही लोगों के लिए दुष्यंत कहते थे- मुल्क में एक बूढा आदमी है या यूं कहो, इक अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है. लंबे समय तक राजनीति और फिर पत्रकारिता में रहने के बाद वे फिर एक इनिंग की तैयारी कर रहे हैं. इस बार भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ वे कुछ नया कर रहे हैं. यह नयापन नवंबर माह में सामने आएगा. यानी वे अपनी पत्रिका द पब्लिक एजेंडा हिंदी पट्टी को सौपेंगे. कल मेरी उनसे मुलाकात हुई. बातचीत का सिलसिला चला तो पत्रकारिता, समाज, देश, राजनीति से लेकर आपसी संबंधों के अंतर्जाल तक वे बोले. हमारी बातचीत में टाइम्स ऑफ इंडिया का शुरुआती दौर था, चंद किताबें थीं, दूर होते लोग थे, पास आते खतरे थे, और करोलबाग की धूप का धब्बा था. कृष्णन जी जो बोले उसकी कतरनें कुछ इस शक्ल की थीं.
वे कहते हैं:-
हिंदी में इंडिया टुडे और आउटलुक को छोड दें तो कोई पत्रिका है ही नहीं. इंडिया टुडे का ज्यादातर हिस्सा ट्रांसलेशन से चल रहा है. आउटलुक में कुछ ओरिजनल वर्क है. दोनों ही पत्रिकाएं न्यूज बेस फीचर ही दे रही हैं. और फिर पाठक भी सीरियस नहीं है. हिन्दी पाठक की रुचि सत्यकथामय हो गई है. यह बदलाव पिछले तीस सालों में आया. अब स्तरीय किताबों के पहले संस्करण ही 300-500 छपते हैं. 60 करोड हिन्दी भाषी और उस पर 60 फीसदी से ज्यादा साक्षरता दर के आंकडों के बीच यह संख्या हास्यास्पद है. 80 साल पहले जब देश की जनसंख्या 25 करोड थी, तब 2000-3000 किताबें छपती थीं और बिकती थीं. तब सरकारी खरीद भी नहीं थी.
जहां तक हिन्दी अखबारों की बात हैं तो वे क्षेत्रवाद के बाद अब जिलावाद की ओर बढ रहे हैं. हिंदी अखबारों में अंतरराष्ट्रीय खबरों के अलावा टेक्नालॉजी, साइंस जैसे विषयों पर कुछ भी नहीं है. हिन्दी का पढा लिखा तबका आधी अधूरी जानकारी के साथ जी रहा है. लोगों के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि पाठक यही सब पढना चाहता है, तभी प्रसार बढ रहा है. असल में अफीम खिलाकर उसकी आदत डाली गई है. लोगों की रुचि बदल दी गई है. उन्हे वही परोसा जा रहा है, जो परोसना चाहते हैं. उनके पास च्वाइस नहीं रही. पिछली दो पीढियों को प्रिंट मीडिया ने क्षेत्रीयता और धर्म के नाम पर भडकना और भटकना सिखाया है. भडकाऊ चीजों को प्रश्रय देता रहा है प्रिंट मीडिया. हिंदी का प्रिंट मीडिया. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में देखें, बंगाली, उडिया, कन्नड, मलयालम, मराठी, तेलगू, तमिल आदि में अच्छा साहित्य रचा जा रहा है और पत्रिकाएं भी बेहतर हैं.
इसका बडा करणा बढती हुई अंध धार्मिकता है. लोग हनुमान चालीसा ज्यादा पढते हैं, निराला की कविताओं के बारे में नहीं जानते. विश्व साहित्य से अनजान हैं. मेरा धर्म से कोई ऐतराज नहीं लेकिन उसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जाने पर विरोध है. यह जो धर्म की राजनीति है खुद को विश्वगुरु मानती है. विद्वान मानती है. यानी हमें पढने समझने की जरूरत ही नहीं. हर चीज में खुद को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है. यह राजनीति लोगों को इतिहास से अनजान कर रही है. अपनी रटी हुई चीजों को फेंक रही है. और पीढियां इनमें उलझ रही हैं. संस्कृति और सभ्यता को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं. महज सौ साल पुरानी राष्ट्रीयता को लेकर भ्रम फैलाये जा रहे हैं.
फिर भी इन स्थितियों के बीच उम्मीद की किरण जनता के बीच ही है. हम किसी को ज्यादा छूट नहीं देते. नकेल कसते रहे हैं. यही हमारी ताकत है, जिस पर हमें भरोसा करने चाहिए.
वे कहते हैं:-
हिंदी में इंडिया टुडे और आउटलुक को छोड दें तो कोई पत्रिका है ही नहीं. इंडिया टुडे का ज्यादातर हिस्सा ट्रांसलेशन से चल रहा है. आउटलुक में कुछ ओरिजनल वर्क है. दोनों ही पत्रिकाएं न्यूज बेस फीचर ही दे रही हैं. और फिर पाठक भी सीरियस नहीं है. हिन्दी पाठक की रुचि सत्यकथामय हो गई है. यह बदलाव पिछले तीस सालों में आया. अब स्तरीय किताबों के पहले संस्करण ही 300-500 छपते हैं. 60 करोड हिन्दी भाषी और उस पर 60 फीसदी से ज्यादा साक्षरता दर के आंकडों के बीच यह संख्या हास्यास्पद है. 80 साल पहले जब देश की जनसंख्या 25 करोड थी, तब 2000-3000 किताबें छपती थीं और बिकती थीं. तब सरकारी खरीद भी नहीं थी.
जहां तक हिन्दी अखबारों की बात हैं तो वे क्षेत्रवाद के बाद अब जिलावाद की ओर बढ रहे हैं. हिंदी अखबारों में अंतरराष्ट्रीय खबरों के अलावा टेक्नालॉजी, साइंस जैसे विषयों पर कुछ भी नहीं है. हिन्दी का पढा लिखा तबका आधी अधूरी जानकारी के साथ जी रहा है. लोगों के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि पाठक यही सब पढना चाहता है, तभी प्रसार बढ रहा है. असल में अफीम खिलाकर उसकी आदत डाली गई है. लोगों की रुचि बदल दी गई है. उन्हे वही परोसा जा रहा है, जो परोसना चाहते हैं. उनके पास च्वाइस नहीं रही. पिछली दो पीढियों को प्रिंट मीडिया ने क्षेत्रीयता और धर्म के नाम पर भडकना और भटकना सिखाया है. भडकाऊ चीजों को प्रश्रय देता रहा है प्रिंट मीडिया. हिंदी का प्रिंट मीडिया. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में देखें, बंगाली, उडिया, कन्नड, मलयालम, मराठी, तेलगू, तमिल आदि में अच्छा साहित्य रचा जा रहा है और पत्रिकाएं भी बेहतर हैं.
इसका बडा करणा बढती हुई अंध धार्मिकता है. लोग हनुमान चालीसा ज्यादा पढते हैं, निराला की कविताओं के बारे में नहीं जानते. विश्व साहित्य से अनजान हैं. मेरा धर्म से कोई ऐतराज नहीं लेकिन उसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जाने पर विरोध है. यह जो धर्म की राजनीति है खुद को विश्वगुरु मानती है. विद्वान मानती है. यानी हमें पढने समझने की जरूरत ही नहीं. हर चीज में खुद को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है. यह राजनीति लोगों को इतिहास से अनजान कर रही है. अपनी रटी हुई चीजों को फेंक रही है. और पीढियां इनमें उलझ रही हैं. संस्कृति और सभ्यता को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं. महज सौ साल पुरानी राष्ट्रीयता को लेकर भ्रम फैलाये जा रहे हैं.
फिर भी इन स्थितियों के बीच उम्मीद की किरण जनता के बीच ही है. हम किसी को ज्यादा छूट नहीं देते. नकेल कसते रहे हैं. यही हमारी ताकत है, जिस पर हमें भरोसा करने चाहिए.