चेहरों पर चेहरे, चेहरे पर मुलम्मा

मैंने कभी शराब नहीं छुई
मैंने कभी सिगरेट को हाथ नहीं लगाया
इश्क नहीं किया किसी हसीन आंख से
मुझे सस्ते साहित्य का एक भी हर्फ पता नहीं
मैंने कभी झूठ नहीं बोला
न मैंने किसी से कोई बेईमानी की

यह कुछ झूठ हैं, जिन्हें बोलते हुए मैं बिल्कुल भी नहीं घबराता. मौके बेमौके बेखटक बोल देता हूं. मेरे कुछ करीबियों को यह झूठ बहुत भले लगते हैं और इन्ही की सीढी चढकर वे मुझ पर भरोसा करते हैं. मुझे प्यार करते हैं. सच की एक हल्की सी शक्ल भी उन्हें मुझसे दूर कर देगी यह जानकर मैं मुलम्मा चढाये घूमता हूं. इस तरह मेरी दो दुनिया हैं. एक मेरी असली दुनिया, और एक उन करीबियों के लिए भ्रम पैदा करने वाली दुनिया. मैं इससे बाहर नहीं निकलता चाहता. मैं इन्ही दो दुनियाओं की सैर में मस्त जीये चला जाता हूं. आवारगी का रंग भी इसी दुनिया की ओवरलैपिंग बचाने के लिए है. इन्हें एक दूसरे से मिलाकर मैं अपनी उछलकूद को खत्म नहीं करना चाहता.
रांची में अपने पहले प्रवास यानी अक्तूबर 2003 में मैंने जाना कि क्यों लोग अपने चेहरे पर चेहरे चढाते हैं. यह तभी की बात है जब कथादेश ने अपना नवलेखन विशेषांक निकाला था. मनीष कुमार श्रीवास्तव, 47 झेलम होस्टल, जेएनयू के पते वाले कवि भी इसमें दर्ज थे. उनकी कविता का शीर्षक चेहरा ही था. कविता तब याद की थी. सायास. अब नहीं याद है. अविनाश जी तब वहीं मिले थे. प्रभात खबर के नबंबर अंक की तैयारी के दिन थे वे. विनय भूषण, रंजीत प्रसाद सिंह और फैसल जी के साथ अनुपमा जी, रोजबीता जी, दीप्ति जी और प्रतिमा की टीम थी. कुंदन चौधरी और अरविंद भी बिना घंटों का हिसाब किए मुस्कुराते हुए एडिटिंग में जुटे रहते थे. मुख्य अखबार के पहले पन्ने की जिम्मेदारी अविनाश जी ने संभाली हुई थी विशेष एडीशन के लिए. शकील जी की स्पेशल रिपोर्ट जानी थी. भ्रष्टाचार का पूरा कच्चा चिट्ठा दिया जा रहा था. रेशा रेशा करके. यह वह वक्त था जब झारखंड निमार्ण के साथ देखे गए सपने सच होने करने की जज्बा अपनी पूरी ताकत से दिलों में धडक रहा था. तब न उतनी समझ था न अनुभव बस काम होते देखता था. सत्यप्रकाश की बतकही और निष्कर्ष की शक्ल में निकलते पॉलिटिकल बयानों के बीच हम फैसल जी को खींचने की शुरुआत कर रहे थे. शाम सात बजे के करीब फिरायालाल चौक बैठकी का अड्डा हुआ करता था.
एक दिन चार बजे के करीब मदन जी की बनाई नींबू की चाय की चुस्कियों के बीच हरिवंश जी के बीबीसी में छपे आर्टिकल को आधार बनाकर चर्चा की जा रही थी. देश का सबसे समृद्ध अंचल सबसे ग़रीब न रहे, झारखंड शोषण का केंद्र नहीं, समृद्धि का द्वीप बने. रोजगार के लिए लोग पलायन न करें, प्राकृतिक संपदा बाहर न जाएँ, राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिरता हो. इन सवालों की चीरफाड की जा रही थी. चर्चा सार्वभौमिक स्थितियों से शुरू होकर व्यक्तिगत हमलों पर आ चुकी थी. फैसल जी सभी के निशाने पर थे. आपका किया हुआ काम ही कठघरे में होता है, जो कुछ करता ही नहीं उसकी क्या आलोचना? आज जो सवाल झारखंड निर्माताओं से पूरी वेग के साथ पूछे जा रहे हैं उनकी बौछार झेलते हुए फैसल जी अपनी तेज आवाज में कांपते और फीकी हंसी हंसते हुए झेल रहे थे. बीच में बचाव के जवाब दे रहे थे. उनकी झारखंडियत भी सवालों के घेरे में थी. डोमिसाइल के नए कोण हम देख रहे थे. फैसल जी यह मनवाना चाहते थे कि जो अपने कर्म से सच्चा है, जिसमें झूठ नहीं, छल नहीं प्रपंच नहीं जो अपनी भलाई के लिए किसी को नुकसान न पहूंचाने वाला झारखंडी होता है. और उनके अनुसार यह शर्तें वे पूरी करते थे.
श्रीनिवास जी, अविनाश जी, सत्यप्रकाश इन्ही गुणों को लेकर खुद को झारंखडी कहलवाना चाहते थे. जो फैसल जी को मंजूर नहीं था. दिकू और निकू की इस लडाई में उलगुलान अपने पास रखना चाहते थे फैसल जी.
यह बहस तेज से तेजतर हो रही थी. चाय की दूसरी खेप चलने लगी थी. कि एक काला सा शख्स महफिल में आया. अविनाश जी से कुछ कम काला और श्रीनिवास जी के आगे कालापन लिए यह आदमी अविनाश जी से मुखातिब था. उन दोनों के बीच कुछ वाक्यों का आदान प्रदान हुआ. फिर अविनाश जी बोले - "यह हैं ........"
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(आप क्या पढना चाहेंगे. देखना चाहेंगे इन चेहरों के निजी रंग को. मेरी समझ से. छोटी सी समझ से. जैसे देखा वैसा कहा की सी साफगोई के साथ. जान लीजिए मुझे आगे यह लोग छोडेंगे नहीं. लेकिन उठा ही लिए जाएं अब अभिव्यक्ति के खतरे. आपकी असहमतियों का इंतजार रहेगा. फोन न करें जो कहें लिखित कहें.)