मां को याद करते हुए

भाई अरविंद शेष के लिए
मैं अमूमन मां को याद नहीं करता। भावुक हो जाना यूं भी कोई बहुत अच्छी बात नहीं हैं। राजेश जोशी अपनी प्लम्बर वाली कविता में जिन 'जानकारी वाली खूबियों' की बात करते हैं, उन्हें मैंने इसी अंदाज में सीखा था कि हमें बुरे लोगों को ज्यादा याद करना चाहिए। ताकि खुद के भले होने का भ्रम बड़ा होता रहे। हम मध्यवर्गीय 'कमाऊ लोग' शायद इसीलिए प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, गैस वाले, रिक्शेवाले, ऑटो वाले, धोबी, गार्ड, फुटपाथी दुकानदार और ऑफिस में एक आवाज पर पानी लाने वालों को अपनी दोस्ती की लिस्ट में शामिल नहीं करते।
मां को याद करने में अच्छेपन का भ्रम और बेहद छोटे होने की सचाई जिस शक्ल में आती है, वह बहुत कुछ तोड़ भी देती है। हमारी मांएं जितनी मजबूत हैं, हम उतने मजबूत कभी नहीं होंगे। जिन तीन स्त्री-खंबों (मां, बहन, पत्नी) से हमारी अच्छाइयां बनी होती हैं, वहां ज्यादा नहीं जाना चाहिए। दरकने का डर बना रहता है। फिलवक्त कुछ मजबूती के साथ ये दरकती हुई पंक्तियां।


मांएं एक जैसी होती हैं
भीतर से
और बेटे....
बाहर से
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मां ने आवाज दी
चूल्हे से उठती भाप में खांसते हुए
हम दौड़ पड़े बिन चप्पलों के
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हाथ धोना सिखाया मां ने
आटा गूंधते दुलारा
तो हाथ झटक दिया मां का
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बच्चों को देखकर
याद आई मां
मां को बच्चा बनते देर नहीं लगती
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उम्र पर पत्नी में देखते रहे
मां का अक्स
मां तकती रही हमारी आवाज में
पिता की धमक
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मुश्किल वक्त में
मां याद आई
सिर पर हाथ फेरती
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बहनों से छुपाकर रख्खे थे जो
लड्डू, आम और केले
मां अपने हाथों से खिलाती रही
हम बहनों को चिड़ाते रहे
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गीली जमीन पर सोना
और जरा-सी आहट में जागना
खामियां ही लगीं मां की
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पिता की डांट
बेटे की झिड़की
और बहनों की शिकायत
सब देहरी से सुना मां ने
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मायके को याद करती है मां
बेटियों के लिए
और बेटे से बांटती है
ससुराल के सुख
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पिता की डांट
मां का दुलार
पीछा नहीं छोडते आखिरी वक्त तक
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मां की मां को याद करो
तो मां खुश हो जाती है
पिता की मां को याद करते हुए
चुप्पी साध लेती है मां
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एक स्त्री बदलती रही चोला
बेटी, बहन, पत्नी और मां का
दादी-नानी के किरदार तक आते-आते