आधे अंधेरे समय में

कुछ साथियों के लिए 'आधे अँधेरे समय में’ एक आत्मीय याद हैं, तो कुछ के लिए यह एक खूबसूरत सिँफनी, कुछ के लिए अँधेरे में चमकती एक साफ शफ्फाक रोशनी, तो कुछ के लिए उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलने का हौँसला देने वाली एक शानदार कविता…… लेकिन सभी के लिए यह मनुष्यता के पक्ष में इस्तेमाल किया गया एक मजबूत हथियार हैं
2002 में ‘आधे अँधेरे समय में’ के दूसरे प्रदर्शन के दौरान मैंने कुछ निजी अनुभव अर्जित किये, जो सार्वजानिक जीवन में कई बार मुझे संभाले रहे, अन्य मित्रों के साथ भी ऐसा हुआ होगा (मुझे लगता है). रिहर्सल के दौरान अनौपचारिक बातचीत में पुष्य मित्र जी ने एक बार कहा था ‘ कविता अपने भाव से अधिक उसकी धार के कारण याद रहती है, हालांकि धार या तेवर भी भाव का ही विस्तार हैं.’ पता नहीं उन्होंने यह बात सिर्फ कहने के लिए कही थी या पूरी गंभीरता से, लेकिन अगर इसी में अपनी बात जोडूं तो- कविता उतने ही ज्यादा दिनों तक पाठक के साथ चलती है, जितनी वह जीवन के करीब होती है. इसका उल्टा भी मुझे उतना ही ठीक लगता हैं. यानी जो जीवन के जितना नजदीक होगा कविता के उतने ही पास जाएगा. बार बार लगातार.
इस मायने में ‘आधे अँधेरे समय में’ भरोसा देने वाली कविताओं का समुच्चय है. जीवन का भरोसा देने वाल कविताओं का समुच्चय.

धन्यवाद मनीष मनोहर भाई यह कोलाज तैयार करने के लिए. आपमें से कई ने इस कोलाज का मंचन देखा होगा. तो याद कीजिये भारत भवन की वह सम्मोहित कर देने वाली शाम और लीजिये आस्वाद इन बेहतरीन अल्फाजों का.

आधे अँधेरे समय में
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(16 मार्च 2002 को हुये ‘ आधे अँधेरे …’ के दूसरे मंचन में स्म्रृति पथे, वाई वंदना, इफ्फत अली, वर्षा निगम, ऐम अखलाक, शिरीष खरे और रूपेश कुमार के साथ मैंने अभिनय किया था. निर्देशन का जिम्मा सच्चिदानंद जोशी सर के साथ पशुपति शर्मा जी ने संभाला था. जयंत सिन्हा, पुष्य मित्र, रवि दुबे, प्रभात कुमार, बासु मित्र, सेवियो, अविकांत बेले, संदीप ठाकुर, अनुपमा, शिखा, मोहन, प्रवीण भाई ……… और ….और …और … ने प्रस्तुति को मंच तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निवाही थी.)