मैं, मुक्तिबोध, राजेश जोशी और आसमान की सैर

पूरी हकीकत पूरा फसाना-एक
कल
रात तकरीबन साढे 11 बजे मैं और रूपेश आफिस से घर के लिए निकले। मेरे कमरे की गली के मुहाने पर रूपेश ने गाडी रोक दी. लाइट नहीं थी इसलिए सन्नाट में मह मोटरसाइकिल के इंजिन की घरघराहट ही सुनाई दे रही थी. ऊंघते कुत्ते हमें नजरअंदाज कर मुंह फेर चुके थे. मैंने अलविदा के अंदाज में हाथ उठाया और रूपेश ने एक्सीलेटर ले लिया. खरामा खरामा मैं कमरे की और बढने लगा. पांच सात कदम ही चला होउंगा कि देखा गुप्ता जी के मकान के करीब कोई खडा था. बीडी सुलगाए. मैं करीब पहुंचा तो साए ने पूछा - "खत्म कर आए दिहाडी". कोई परिचित ही था, आवाज ने बताया, ऐसा सवाल क्यों. ठंडे अंधेरे में....समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार, लेकिन बात गहरी हो. पास पहुंचा तो देखा मुक्तिबोध ही थे. बीडी खत्म हो गई थी. ठूंठ फेंकते हुए बोले - "पार्टनर नींद तो नहीं आ रही". मैंने इनकार में सिर हिलाया. उन्होंने नहीं देखा. बोले- "भोपाल से आ रहा हूं. कुछ दिन से वहीं था. नौ तारीख को वहां राज्य स्तरीय फुटकर व्यापार बचाओ सम्मेलन था." कहीं गहरे से आती उनकी आवाज में बेचैनी थी - तीस करोड कमजोर भारतीय की रोटी छिनने के डर से उपजी बेचैनी. पांच करोड मेहनतकश भारतीयों के रोजगार पर हमले से उपजी बेचैनी. और 375 लाख करोड के वैश्विक खुदराबाजार को कब्जाने में जुटी वालमार्ट (अमेरिका), मेंटो (जर्मनी) और कैरीफोर (फ्रांस) के खिलाफ कोई ठोस पहल न हो सकने की बेचैनी थी यह.
मैंने मुक्तिबोध का हाथ पकडा और स्वच्छ हवा के लिए हम दक्षिण की ओर उड चले। ग्वालियर के पास उन्होंने कुछ देर रुकने का इशारा किया. शायद वे थक गये थे. हम श्योपुर के करीब उतर गये. सामने से राजेश जोशी आ रहे थे. उनके साथ पत्रकार मित्र आत्मदीप भी थे. राजेश हिरन छाप की झोंक में थे, बोले - "आप जैसे चिकने लौंडों को नहीं घूमना चाहिए रात बिरात. यहां की आदतें ठीक नहीं हैं जनाब". मैं हल्के से मुस्कुराया, मुक्तिबोध भी हंसे लेकिन यह उनकी हंसी नहीं थी. औपचारिक हंसी थी वह. वे फिर उदास हो गये. राजेश ने भी भांप लिया. आत्मदीप ने कारण पूछा तो मुक्तिबोध ने प्रश्न दागा- "तुम भोपाल में हो कुछ करते क्यों नहीं".
आत्मदीप ने बताया- "फुटकर व्यापार बचाओ जनसंघर्ष समिति बनी है। 22 जुलाई को रीवा, 28 जुलाई को जबलपुर और एक अगस्त को सागर में बैठकें हुईं. खेल बहुत बडा है, भारत में ही कुल पांच लाख करोड के फुटकर बाजार पर वालमार्ट और मेंटो के देसी संस्करणा रिलायंस, सुभिक्षा, एयरटेल नजर गडाए हुए है. यूं भी भारत में फुटकर बाजार की वृद्धि दर विश्व में सर्वाधिक (दस फीसदी) है". उन्होंने एक और भयानक सूचना दी कि भोपाल में तकरीबन तीस हजार सब्जी विक्रेता बेरोजगार हो गये हैं.
राजेश जी पर हिरन छाप का असर कम हो रहा था। वे अपने ही अंदाज में गरियाते हुए कह रहे थे शहर से थोडा हटके आबादी से बाहर खुली हरी पहाडी पर एक कालोनी है चौरासी बंगले. चौरासी बंगले हैं वहां, चौरासी बंगलों में हैं चौरासी बगीचे, चौरासी बंगलों में रहते हैं चौरासी परिवार. चौरासी हजार योनी पार करके आए हैं वे, चौरासी कारे हैं उन लोगों के पास. सारे शहर पर चलता है उनका रौब दाब. वे जिसकी चाहें खाट खडी कर सकते हैं -किसी भी वक्त.
मैंने कहा- "चांद मियां अबकी बार खाट खडी नहीं की है। इस बार तो ताबूत भी तैयार है". मुक्तिबोध अब तक चुप थे. वे आसमान की ओर सिर उठाये थे. कह रहे थे -अजी, यह चांदनी भी बडी मसखरी है. तिमंजिले की एक खिडकी में बिल्ली के एक सफेद धब्बे सी चमकती हुई/वह समेटकर हाथ पांव किसी की ताक में चुपचाप बैठी है/धीरे से उतरती है/ रास्तों पर चढती है/ छतों पर गैलरी में घूम और खपरैलों पर चढकर/ पेड की शाखों की सहायता से आंगन में उतरकर/ कमरों में हल्के पांव देखती है, खोजती है, जाने क्या?
राजेश जी उनके पीछे थे हम एक मैदान की ओर जा रहे थे। उमस बढ गई थी. आत्मदीप को जल्दी थी, वे वापस चल दिये. अब हम तीनों थे, मुक्तिबोध, राजेश और मैं. और चुप्पी. और उमस. और चांद टकटकी लगाए देख रहा था हमारी ओर. मुक्तिबोध की उदासी अब भी उनके चेहरे पर थी. उन्होंने फिर बीडी सुलगा ली थी. मैं सोच रहा था वे चांदनी को क्यों देख रहे हैं. यह हसरत की नजरें हैं या हिकारत की. क्या नये खुलते मॉल उन्हे चांदनी जैसे लग रहे हैं, जो धीरे धीरे उतर रहे हैं हमारे घरों के सबसे निचले हिस्सों में. बेआवाज. कितना अच्छा लग रहा है हमे बाजार का घर में आना. चांदनी की तरह, जो दबे पांव आई है बिल्ली की शक्ल में.
राजेश जी भी चुप थे, वे अपनी दाडी में उंगलियां फंसाए देख रहे थे आसमान की ओर. जिसकी उन्होंने सैर की थी हवाओं को चीरते, कुलांचे भरते हिरन की तबीयत पर सवार होकर बा-हैसियत एक शहंशाह. शायद वे याद कर रहे थे उन दिनों को जब सारे ग्रह, नक्षत्र तारे खडे हो जाते थे उनके सम्मान में और सप्तऋषि ऋचाएं गाते थे उनके लिए. वे उनकी विराट और बंजर बेरोजगारी के दिन थे. (जारी...)