धुआं घुल गया है

पुराने शहर में एक दिन-एक
भोपाल. स्टेशन पर पीली पृष्ठभूमि में चमकते यह काले अक्षर मेरे शरीर में झुनझुनाहट पैदा करते हैं. इस झुनझुनाहट का रसायन 7 नंबर बस स्टॉप और न्यू मार्केट से लेकर शाहजहांनाबाद से करौंद तक फैला हुआ है, जहां पटियों पर शतरंज खेलते जुम्मन मियां होते हैं और स्कूटी पर कोई तेज रफ्तार लडकी अपने मुंह पर मुसीका बांधे गुजरती है.
पांच साल पहले हम (यानी सुधाकर, अनवर, संतोष, संदीप, रवि, विकास, मोहन.....) ऐसे अनगिनत दृश्यों को अपनी यादों में तल्लीनता के साथ संजों लेना चाहते थे. लेकिन इस शहर के बारे में बताने को महज यादें काफी नहीं पडतीं. मैं कुछ और कहना चाहता हूं.
यही सोचकर मैंने खुद को स्टेशन पर उतरते ही इस शहर के हवाले कर दिया. वरना इस शहर को देखना आसान नहीं है. पांच नंबर प्लेटफार्म के बाहर यह भागलपुर की शक्ल का है तो एक नंबर की तरफ से यह जालंधर दिखाई देने लगता है.
राजू नीरा को अपने आने की सूचना दे रखी थी. उन्हे अपनी ताजा स्थिति बताई और मैं 7 नंबर बस की सबसे पिछली सीट पर जम गया. अल्पना चौराहे पर बस रुकी. कंडक्टर ठेठ भोपाली में सवारियों को आकर्षित करने लगा- "जिंसी, सुभाष, प्रेस, बोर्ड ऑफिस, नाका, नाका नाकाSSSSSS ......"
मैं अपनी यादों में उतर गया. जब कंडक्टर की भोंडी नकल करते हुए मैंने अहमदाबाद से भुज की यात्रा के दौरान रुपये इकट्ठे किये थे. भुज भूंकप के बाद के दिन थे वे. जब हिलती धरती से डरे, सहमे चेहरों के बीच हम अपनी परीक्षाएं छोडकर पहूंचे थे. अब वह साहस कहां गया हमारा?
"माकडा नागराज आ गया", कंडक्टर की तेज आवाज के साथ ड्राइवर ने एक्सीलेटर लिया और घर्र घर्र की आवाज के साथ मैंने खुद को संगम के पास पाया. बस धीमे चल रही थी. कंडक्टर आवाज देता जा रहा था- "जिंसी, सुभाष, प्रेस......"
भोपाल जैसे शहरों में अनदेखा करने लायक कुछ नहीं होता. ऐसे शहरों की बुनावट में इतनी कारीगरी होती है कि हर एक चोट अपना निशान छोडती है और शहर अपनी खास शक्ल पाता जाता है. भोपाल में यह चोटें बहुत बारीक ढंग से पडी हैं. नियमित. 84 का निशान इस शहर की शक्ल पर अभी भी पूरी तरह नुमांया होता है. बस भारत टॉकीज चौराहे पर पहुंच गई थी. यहां से इसे बाएं मुड जाना था. बरखेडी की ओर. जहां भोपाल की सबसे खराब सडकों में से एक हिस्सा है. जहां ऐशबाग स्टेडियम है अपनी बदहाली को हर दस मिनट में गुजरती ट्रेनों में बैठे लोगों से छुपाता. मैं शरीर छोडकर सोच के सहारे सीधा चल दिया. मंजूर ऐहतेशाम के घर से आगे अब मेरे दांयी ओर लाइब्रेरी थी. थोडा आगे चला तो बायीं ओर दरगाह के पीछे शाहजहांनी पार्क, भोपाल में इसे पारक कहा जाता है. और दाहिने हाथ पर सुल्तनिया जनाना हास्पताल की लाल इमारत. शाहजाहंनी पार्क 84 के पीडितों की लडाई का गवाह रहा है. कितने ही जुलूस यहां से शुरू होकर पुरानी विधानसभा तक गये हैं. कई धरने प्रर्दशनों की गवाह रहीं है शाहजहांनी की सीढियां. लेकिन जिस तरह पृकृति पुराने जख्मों को आहिस्ता आहिस्ता ठीक कर देती है. कमोवेश उसी तरह शहरियों का संघर्ष अब शांत हो चुका है और वे हलचल भरा मध्यमवर्गीय जीवन जी रहे हैं. अब यहां महज एनएसएस के कंडोम की बिक्री बढाने वाले नुक्कड होते हैं. गाहे-ब-गाहे 10-50 लोग दोपहर से शाम तक रस्मी नारेबाजी कर जाते हैं. इसके अलावा तो शाहजहांनी की शाहजहांनीयत पर महज कौवेबाजी के नारे ही चस्पां हैं. आगे जाकर मैं बाएं मुड गया और छोटे तालाब के किनारे किनारे जलकुंभी देखता हुआ लिली की ओर बढने लगा. यह पुराने भोपाल और नए भोपाल की संधि रेखा है. पुराना भोपाल परेड ग्राउंड की चढान पर हांफने लगता है और नया भोपाल शक्ल लेने लगता है. असल में जहांगीराबाद से आगे दक्षिण-पश्चिम में भोपाल मखमली दूब की हरियाली और चिकनी सडकों के साथ नंबरों का शहर हो जाता है. यह अनीता वर्मा की कविता दर्ज फ्लैट के नंबर भी हैं और इलाकों की बसाहट के दर्ज ब्यौरे भी. और इसके पीछे रह जाता है नवाबी ठाट के गुंजलक का स्मृतिशेष कोलाज. जो छोला रोड से होता हुआ बैरागढ तक फैल गया है और जिसका एक सिरा चांदबड तक आता है. "इसी के बीच में वे बहुत आंकी बांकी और चक्करदार गलियां हैं, जिनमें से कुछ के रास्ते आसमान से होकर निकलते हैं".
इन गलियों में चाय की छोटी दुकान से लेकर मशहूर भोपाली बटुए के फड हैं. दुकानों के ऊपर टंगे मकान हैं, जिनके किसी सीलन भरे कमरे में एक दो कैरमबोर्ड रखे होते हैं. उनके ऊपर पीली रोशनी फेंकता 60 वॉट का बल्ब और कमरे में फैला सिगरेटी धुआं होता है. इन कमरों में रात रात भर क्वीन के बाद कवर को ले जाने का मशक्कत भरा खेल चलता है.
पुराने भोपाल की ज्यादातर सडकों के नाम बेगमों और नवाबों के नाम पर हैं. यहां की गलियों के नाम भी किसी अनाम सी शख्सियत पर हैं, जिनका इतिहास बता सकने वाले या तो कब्रों में दफ्न हैं या बेहद जर्जर जिस्म के साथ आखरी सांसें ले रहे हैं. यानी काली धोबन, शेख बत्ती की गली, नाइयों की गली, बाजों वालों की गली, गुलिया दाई की गली.... आदि के नाम से ही इनके बारे में कोई अनटिप्पू इतिहास बताया जा सकता है. इन्ही में से एक गली के दूसरे सिरे पर खुशीलाल वैद्य का परिवार रहता था, जिनका एक लडका पिछली सदी के आखरी दिनों में इस देश का राष्ट्रपति बना था.
इन गलियों की एक और याद वह अहद होटल भी है, जिसका जिक्र राजेश जोशी की अजमल कमाल को संबोधित कविता में आता है. अहद होटल इब्राहिमपुरे (रियासत की पहली बेगम फतह बीबी की कोई औलाद नहीं थी. उन्होंने बडी उम्र में इब्राहिम नाम के लडके को गोद लिया उसी के नाम पर इस मोहल्ले का नाम रखा गया) की एक संकरी गली में फुरसतियों का ठीहा था. और शहर के उन दिनों के सबसे फक्कड शायर मियां ताज भोपाली इस होटल के मैनेजर हुआ करते थे. अब वहां जूतों की चमचमाती दुकान है. दृश्य का यह परिवर्तन ठीक उसी वक्त हुआ जब दिल्ली के कनॉट पैलेस का कॉफी हाउस एक भूमिगत बाजार बनाने के लिए ध्वस्त किया गया. अड्डेबाजी की इन दो जगहों का बाजार में बदलना हमारे समय की आम होती छवि की सबसे मुक्ममल तस्वीरें हैं. इन्हे देखते हुए हमारी आंखें अब गीली नहीं होती.
मैं जिस बस में बैठा था वह सरगम पहुंच गई थी और अगले स्टॉप पर मुझे उतरना था, जहां राजू भाई इंतजार कर रहे थे. इसलिये मुझे इन गलियों के रहस्यलोक से बाहर आना पडा. मैं हबीबगंज पर उतरा, अशोक भाई की दुकान पर जाकर एक सिगरेट सुलगाई और स्कूटर की पिछली सीट पर जम गया. हम बढ चले थे. 11 नंबर की ओर. पीछे बस, ट्क, कार और बाइकों के धुएं में मेरी सिगरेट का धुआं घुल गया था, जैसे सात साल पहले अलग अलग शहरों कस्बों से आकर हम घुल मिल गये थे-हडबडाते और चिल्लाते समय में. (जारी)