हाल दिल से जुदा नहीं होता

चित्रकूट यात्रा अंतिम किस्त
तेज
बारिश में किसी पहाडी के ऊपर घास पर पडती बूंदें देखी हैं. बडी बडी बूंदें. पूरी पत्ती पर नहीं पडतीं. छूती हुई गुजर जाती हैं. अनंत से कभी न्यून कोण बनातीं कभी अधिक कोण से वार करतीं. समकोण से टपकतीं. घास हर बूंद के साथ झूल जाती है. यह एक पेड पर पत्तियों की बारिश होती है. छोटे से पेड पर. पहाडों पर ही उगता है पानी का पेड.

पानी का पेड है बारिश
जो पहाडों पे उगा करता है
शाखें बहती हैं
उमडती हुई बलखाती हुई
बर्फ के बीज गिरा करते हैं
मौसमी पेड है मौसम में उगा करता है
(सरदार संपूर्ण सिंह उर्फ गुलजार)
इस मौसमी पेड की एक शाख चित्रकूट में है. मंदाकनी. आकाशगंगा सी ही है. एक तरफ इसके उत्तरप्रदेश की बस्ती है. दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के एकांत में खडे मंदिर हैं. मंदाकनी में धीरे धीरे शाम उगती है. नाव उतार देती है हमें धारा के बीच. आरती का स्वर आता है यूपी से. मंदाकनी के ऊपर से गुजरकर यह पहूंचता है तुलसीदास के कानों में वे बैठे हैं यहां प्रतीक्षारत- "हुई है सोई राम रुचि राखा, को करि तरक बढावहीं साखा."
हम गीत, गजलों के सहारे उतरे थे नदी में. सुनील गुप्ता जी ने अनुभव के मुरझाये हुई से किस्से डाल दिये थे. हल्के से. सचिन जैन जी और संजय जी ने भी थोडा पानी हिलाया और वह गये वे किस्से मंदाकनी में आगे को.
अनसुईया मंदिर से यहां मुख्य घाट तक आते आते मंदाकनी का स्वरूप बदल जाता है. पिछले सालों में कुछ मैली भी हुई है मेले के कारण. हालांकि अब यहां लगने वाला मेला संस्कृति का अंग होने के बावजूद दम तोड रहा है, क्योंकि नए समाज के लिए इसमें बदलाव के स्तर पर कुछ भी नया नहीं है. सरकार से निराश मेला आयोजकों ने कुछ स्थानीय फूहड प्रयास किए हैं लेकिन उसे मेले के सुंदरतम उत्पादों (काठ के सामान, लाख की चूडियों का काम आदि) को ही हानि हुई है.
गया प्रसाद जी कह रहे थे- "अब मेले में बात नहीं रही. पहले तो साल भर को खाने का सामान जुटा देता था मेला. अब इलाहाबाद जाना पडता है जाडों में. पेट की गर्मी के सहारे." कुल मिलाकर बाजार के हमले से कमजोर मेला अब अपना स्वरूप खो चुका है.
मंदाकनी के किनारे घाट पर पैप्सी कोक की बोतलें बाहर से बुलाती हुई लगती हैं. मुझे 77 के जार्ज फर्नांडिस और उनके साथी वहां दुकानदारों की शक्ल में दिखाई दिए. तब उन्होंने बडी शान से एक राजनीतिक अदा के तहत कोका कोला को देश से बाहर निकाला था. अब तो 77 के साथ 88-89 भी गर्द में खो चुका है. कोकाकोला का बनवास 14 साल भी नहीं चला और वापस आकर उसने भारतीय ब्रांउ "थम्स अप" की कमाई भी अमरीकी जेब के हवाले कर दी है. हमारा दिल भी "मोर" की रट लगाए था. उडती सी नजर रंगीन पानी पर डाल हमने ढाबे के पास लगे नल का पानी हलक के नीचे उतारा. सुनीता नारायण को याद करते हुए.
यह रात आठ बजे का वक्त था, जब घाट के किनारे मैं, विकास, रूपेश अन्यों का इंतजार कर रहे थे. कइयों ने आरती की ऊर्जा अपने माथे पर रख ली थी. कई ने नाव से ही पानी में हाथ डालकर अपने आने की सूचना घाटों को दी. और कुछ अपने फूहड पत्रकारिए रवैये के तहत लोगों से जवाब तलब करने को उतर गये.
एक सवाल आया कितना चढावा आ जाता है? पंडित जी की आंखों में जवाब था, लेकिन उस पत्रकार मित्र में शायद उसे पढ सके की कूव्वत नहीं थी. उन आंखों में गीली रोशनाई से लिखा था- "इतना हो जाता है कि पांच लोगों का परिवार पल जाए" मैं और देर वहां ठहर सकने की हिम्मत खो चुका था, सो बस के हवाले हो गया.
रात में खाने के बाद सूर्यकांत जी की गीतों से सूर्यकांत जी के गीतों तक का समय था. इसमें भिखानी ठाकुर (निराला के सौंजन्य से) थे, नूतन जी की मैथिली प्रेम कविता थी, अखलाक क बेसब्र अंदाज था और था गजलों, नज्मों, गीतों का कभी कर्णप्रिय कभी कनसुरा सिलसिला. जिनका हाथ तंग था वे चुटकुले कह रहे थे, जिनका गला ठीक था वे ठाठ से थे. इस दौरान पीपी सिंह एक बार फिर 2000-03 के से लगे. इस आदमी का परिचय कराना सचमुच नामुमकिन है. उन्हें आप पत्रकार, शिक्षक, मैनेजर, दोस्त, बडा भाई और व्यावहारिक इंसान मानकर एक खाका तैयार करते हैं और दूसरे ही क्षण उनके भीतर का बच्चा मुंह उठाये खडा हो जाता है. कहता हुआ- अब क्या कहोगे? ........... खैर. मुझे अच्छा लगता है. हर बार इस एक शख्सियत की अलग अलग पर्सनालिटी से मिलना.
दो बातें और
गुप्त गोदावरी चित्रकूट का सबसे बेहतर हिस्सा लगा मुझे. इसके नाम के साथ एक कथा जुडी है. जब हम वहां पहूंचे तब दोपहर अपने पूरे उफान पर थी. बस में हमने खूब गाने गाये थे. सो गला पराया हो चुका था. अखलाक भाई और दयाशंकर को खूब टारगेट किया गया था.
गुप्त गोदावरी की गुफाओं में राम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास का एक लंबा वक्त गुजारा था. पहाडों से छनकर आते पानी का कुंड अब पक्का हो चला है. सीता यहीं नहाती थीं. भीतर गुफा में बैठे पंडित जी ने बताया कि एक बार एक राक्षस सीता जी के कपडे लेकर भाग गया था. वह वहां बैठा था ऊपर. वहां जहां पहाड काला हो गया है. ईश्वर से बैर के कारण राक्षस जहां जहां बैठा वहां वहां पहाड काला हो गया. निस्सट काला. कितना साफ था उसका विश्वास, कितनी मजबूत थी उसकी आस्था की चट्टान. मुझे राजू, रूपेश, रमेंद्र और प्रसून के चेहरों में उनकी ही शक्लें दिखाई दीं. हमने अपने पैरों तले की जमीन देखी. खुदा का शुक्र था काली नहीं हुई थी. यानी "ईश्वर" से संबंध अभी उतने बुरे नहीं हुए थे. तमाम एकतरफा गालिओं के बावजूद.
यहां हर जगह टैक्स लगता है. गुफा के बाहर भीतर जाने का चढावा फिर भीतर दर्शन करने का चढावा और बाहर निकलते वक्त निकासी. बीच मेa कोई टीका भी लगा सकता है. आप पैसे न भी दें तो नाम पूछकर औरों को सुनाकर आपके नाम के साथ दस रुपये पेटी में डाल दिए जाते हैं. यह मार्केटिंग का त्रेतायुगी फार्मूला है, जो आज भी कारगर है.
मैं अब अपनी बात को देता हूं विराम और आप सभी को आराम. बस कुछ फोटो और इसके बाद पोस्ट होंगे. कार्यशाला की गंभीर किस्म की रिपोर्ट जो राजू नीरा ने बहुत मेहनत से तैयार की है आप सूरत ए हाल पर पढ सकते हैं. क्योंकि मैं जानता हूं कि उस माहौल से बाहर निकलकर कुछ ठोस किस्म का लिखना कितना मुश्किल हो सकता है. रिपोर्ट पढने के लिए यहां टुनकी मारें या फिर यहां clik करें.
आपके कमेंट का इंतजार रहेगा.
सचिन श्रीवास्तव
09780418417