फरीदा की आवाज का जादू और तुम मेरे पास होते हो



गजल सुनने का शऊर न मुझे कल था न आज है. 1998 में मेहबूब के घर के करीब मयकदा होने की रूमानियत पंकज उदास की आवाज में गुनगुनाती थी. चंदन दास, अशोक खोसला, जगजीत सिंह, से होते हुए हम गुलाम अली पर ठहरे. फिर मेंहदी हसन और बेगम अख्तर को सुनते हुए अल्फाज की अदायगी के शानदार रंग देखे. आबिदा परवीन की हीर सुनते हुए महसूस किया था कि- घर तेरा काश मेरे घर के बराबर होता, तू न आता तेरी आवाज तो आती रहती.
आज दोपहर में खाना खाने के बाद नींद लेने की गरज से बिस्तर के हवाले हुआ था कि ग्वालियर वाले आशिष द्विवेदी जी का फोन आ गया. और नींद टूट गई. लेकिन यह अच्छा ही रहा. पास से रेडियो की हल्की आवाज आ रही थी, जिस मुकेश अपनी रौतेली आवाज में भर भर कर प्रेमिका को धमका रहे थे कि मुझसे प्यार कर ले नहीं तो बहुतै मुश्किल हो जाएगी. वह इस पर तो राजी थे कि उनकी प्रेमिका उन्हें प्रेम न करे लेकिन इससे उन्हें सख्त एतराज था कि वो किसी और को चाहे. खैर मैं सुनता रहा और सामंतवाद से लेकर लेस्बियन कल्ट तक उलझता रहा. इसके बाद गाना हुआ बंद और फरीदा खानम की आवाज मेरे कानों में पडी. पहली लाइन ठीक से नहीं सुन पाया. जब तक कलम उठाई मतला निकल चुका था. फिर भी मैंने याद के सहारे इसे पूरा किया है. आवाज तो अभी न ला पाउंगा. पोडकास्टिंग अभी मुझे नहीं आती फिलहाल शब्दों के सहारे ही डूबिए. जहां तक याद पड रहा है यह गजल मोमिन खान मोमिन की है. और यह वही गजल है जिसके आखिरी शेर के बारे में गालिब ने कहा था कि मेरा पूरा दीवान ले लो पर मुझे मोमिन का यह शेर दे दो. पेश है यह शानदार गजल
असर उसको जरा नहीं होता.
रंज राहत फजा नहीं होता.
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वरना दुनिया में क्या नहीं होता.
नारासाई से दम रुके तो रुके,
मैं किस से खफा नहीं होता.
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता.
जैसा पहले ही कहा कि गजल सुनने का शऊर नहीं है मुझे. सो मजा न आया हो इन अल्फाज में तो बताइये क्या सुना जाए? इंतजार रहेगा