असदउल्लाह खां का पता बता रहे हैं गुलजार



गालिब और गुलजार. यह किसी लेख का शीर्षक हो सकता है.. किसी कविता की शुरुआत भी और किसी अलमस्त गीत की अनुप्रासयुक्त पंक्ति... जो भी हो दोनों लफ्ज हमारी दिल की रंगत के से लगते हैं... गालिब ने बचपन में न समझ आने वाले शब्दों के बावजूद शायरी का मजा दिया तो गुलजार ने अपने से शब्दों को इतने शानदार मुहावरे में ढाला कि चमत्कार की हद तक औचक चेहरे से गीत सुने, नज्में दोहराईं और बातों को बुना.... जब दूरदर्शन पर नसीरउद्दीन गालिब बन कर अवतरित हुए थे, तब उतने भी समझदार नहीं हुए थे कि उन चित्रों को याद भी रख पाते... बस एक हल्की सी याद है कि नसीर किसी बुर्ज पर खडे हैं और पार्श्व से आवाज आ रही थी... आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब/ दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक...
1998 में बीएससी में दाखिला लिया तो पॉकेट मनी भी बढ गई सो जगजीत की आवाज में मिर्जा साहब को घर में ले आए.... मां सुनती और कुडती कि यह क्या सुनता रहता है... तब गालिब की शायरी को कागज पर उतारने की जिद में एक ही गजल को बारहां सुनते थे.... गुलजार का यह इंट्रो तो काफी दिनों तक जुबान पर चढा रहा.... तो गुलजार के लफ्जों में उनका परिचय लीजिए...
बल्ली मारां के मुहल्ले की वो पेचीदा तंग गलीरों
की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड पे बटेरों के कसीदे
गुडगुडाती हुई पान की पीकों में होता हुआ वाह
वाह
चंद दरवाजों पे लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के ममियाने की आवाज
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे मुंह जोड के
चलते हैं यहां
चूडी बालान के कटरे की बडी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोले
इसी बेनूर अंधेरी गली कासिम से
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक कुरानी सुखन का सफा खुलता है
असदउल्लाह खां 'गालिब' का पता मिलता है
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