ये इतना शोर क्यों है मोहल्ले में

मोहल्ले में अभी अभी झगडा हुआ है. नहीं तू तू मैं मैं हुई है. पडोसी हैं अविनाश सो उनके घर की आवाज यहां तक आती है. मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकलने के लिए मना कर दिया है. वैसे भी मैं निकलना नहीं चाहता. ये रोज रोज की खिट पिट मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. अरे मोहल्ला है मोहल्ले वालों की तरह रहो. और लोग भी तो रहते हैं. लेकिन इन लोगों को कभी समझ में नहीं आएगा. अब अभी देखो नुसरत को सुन रहा था. अच्छा खासा मूड खराब कर दिया.

असल में "दिक्कत" वह लडकी ही है. दीप्ति. जब से उसकी एंट्री हुई है. सब पगलया गए हैं. सभी को कुछ न कुछ कहना है. पता नहीं ऐसे मेहमानों को अविनाश कैसे झेलते हैं. लडाने वाले. दूसरों को लडा दो अपन मजे में. मृत्युंजय ने ठीक कहा था- मुख्य बात सामर्थ्य और उससे उपजी मानसिकता की है।... सोचे थे हम मीडियानगर वाली बातचीत में नहीं जा पाए तो कोई आकर मोहल्ले में बता जाएगा. पर पता ही नहीं चला वो तो भला हो मिहिर का उसने बडी तरतीब से एक खाका खींच दिया. कोई ढंग का गीत भी नहीं सुने. तीन चार दिन पहले अशोक पांडे ने एक गीत डाला था. मीरा का. उसके बाद कैसी मुर्दानी छाई है. नीलिमा की पोस्ट पर भी कोई बहस नहीं हुई. यही मोहल्ला था जब हिन्दी के लिए लोग उठ खडे होते थे कच्छे में निकल पडते थे. और हिन्दी के दो बुजुर्गों की बात पर चुप्पी. सचमुच मोहल्ले में कोई और हवा चलने लगी है.

मैं तुमको बताउं, ये जो हवा चल रही है न ये ठीक नहीं है. उनके नसीब अच्छे हैं या हमारी किस्मत खराब है कि बनता ही नहीं सिराजा... एक बात है दिल के बुरे नहीं हैं ये. लेकिन बातचीत में चिल्लाते बहुत हैं. किसी नतीजे पर पहुंचने को ही होते हैं कि कोई भसड हो जाता है. और ये अविनाश तो अति उत्साही हो गए हैं. पहले चिल्ला चिल्ची करके सबको बुला लेते हैं फिर खुद ही फंसे रहते हैं पपलेटी में. अरे यार ठोक बजा लिया करो.. अपन तो दूर ही रहते हैं.

चलो रात हो चली है. सो जाएं... ये आवाजें तो आती ही रहेंगी... अरे सुनो वो पवन करण का कविता संग्रह लेती आना......