अधूरी कविता जिसे पूरा नहीं होना---- कभी भी

हमें मरने की जल्दी नहीं थी
हम बेपरवाह थे उम्र से
चेहरे पर उगी दाडी ने हमें आश्वस्त किया
सफेदी ने हमें भरोसा दिया
हम भूल चुके थे लकीरों की आहटें
कभी कभी जब कोई नश्वरता को तरकश से निकालता था
प्रत्यंचा के पहले ही छीन लेते थे तीर
हमारे हिस्से में बहुत वक्त था
हमारे हिस्से में बहुत गुमान था

यह नई सदी के पहले दशक के अंतिम वर्षों का तेज जीवन था
जिसमें वर्चुअल दुनिया ने तेजी से जगह बनाई थी
सबसे ज्यादा बातें सोशल नेटवर्किंग और चैटिंग ने कराई थी
घंटों की बोर्ड से उलझते रहे थे महीनों दुनिया को जी भरकर नहीं देखा था
जो पहले शब्द थे वे वाक्य हो गए थे
वाक्यों ने जगह ले ली थी पैरा की
पैरा तो पूरे आलेख कहलाने लगे थे

हमारे पास बहुत वक्त था
लेकिन हम बात जल्द से जल्द खत्म कर देना चाहते थे
हरी से पीली और लाल होती बिंदियों से दोस्तों की ताजा हालत पता चलती थी
हमें पता ही नहीं चला कब गुजर गई बतकही
कहां चली गईं किस्सागोई की महफिलें
चाय की टेबिलों पर नहीं नाइट शिफ्ट में काम करते हुए जानीं दुनिया की सबसे चर्चित खबर पर सबसे उथली राय
पडोस की सीटों पर बैठे दुख से इस कदर अंजान थे
कि अपनी खिलखिलाहट पर उभर आई बेचैन पेशानी भी नहीं दिखाई दी
बौखलाए से फिरते समय में हमने हिस्से को इतना भरपूर कर लिया था
कि न चाहते हुए भी अपने से पार देख पाना मुनासिब न लगता था

अब जबकि थोडे दिन बचे हैं देह के
हम चाहते हैं गोल गोल घूमें
और पूछें
बोल बोल रानी
कित्ता कित्ता पानी.....