मकान जो कहीं नहीं है

यह कविता मेरे एक प्रिय मित्र के लिए समर्पित है. जिसने अभी अभी प्रेम विवाह किया है. मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता पता नहीं उसे कैसा लगे. एक अजनबी शहर में मकान ढूढंने के प्रक्रिया के बीच मैंने उसके चेहरे सो जो जाना उसे उतार दिया है. कई दिनों से उसे फिर फिर अपनी सी मस्ती में नहीं देखा कई दिनों से उसी खुली हंसी में सराबोर नहीं हुआ. असल में हकीकत के साथ हमकदम होते होते उसने शायरी का एक छोटा घरौंदा बनाना शुरू कर दिया है जहां बेशक्ल सी दुनिया एक हिस्सा नुमायां होता है. तो यह कविता उसी मित्र के लिए...
एक उमस भरी दोपहर में
वे घूमते हैं हाथों में हाथ थामे
उनकी आंखों में रिश्ते का यकीन है
उनकी पलकों में
विश्वास का ईथर है

भटकते हैं मकान दर मकान
अजनबी शहर में
आंखें उठती हैं शक की शक्ल में
हर चेहरे पर चस्पां हैं सवालों की तल्खी

अपने हाथों को कसकर
वे झांकते हैं टू लेट की
तख्तियों में बसी चाहरदीवारी में
अपनी दुनिया बसाने की मासूम इच्छा जो अभी अभी थी सबसे अदम्य आकांक्षा
पसीने के बीच बहने लगी है
कोकाकोला की बोतल के सहारे
लडते धूप से
वे बढ रहे हैं अगले मकान की ओर

उन्हें कहीं नहीं जाना है
वे कहीं नहीं जाएंगे
यहीं रहेंगे
किस्सों में उनका जिक्र आएगा
कहानियों में उन्हें पहचाना जाएगा
वे साथ साथ आए हैं शहर में
साथ साथ रहेंगे
जैसे रहते चले आ रहे हैं सात जन्मों से