फिर भोपाल

बीते सात दिनों से भोपाल में हूं. थोपे हुए भोपाल पर. उस तरह नहीं जैसे में यहां होना चाहता हूं. बल्कि उस तरह जैसे कोई चीज कहीं रख दी जाती है बिना पूछे कि उसे वहां कैसा लग रहा है. जैसे एक कप को आप ड्राइंगरूम की टेबिल से उठाकर किचिन के प्लेटफार्म में रख दें या फिर उसे साफ करके सजा दें और कपों के साथ. बिल्कुल वैसे ही जैसे बिना कुर्सी की इच्छा जाने हम लगा देते हैं फुहारों के बीच बारिस का लुत्फ उठाने के लिए. पूछते ही नहीं कि कुर्सी हमारे साथ भीगना चाहती है या नहीं.
कल यानी रविवार को एकलव्य में बच्चों के लिए एक पुस्तक प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ. मंजूर एहतेशाम जी और उदयन वाजपेयी वहां थे. टेसू के गीतों की एक किताब का लोकार्पण भी हुआ. शाम का कुछ वक्त ठीक ठाक ढंग से गुजर गया. वरना जब से आया हूं खबरों ने बेतरह जकडा हुआ है. इन दिनों भोपाल की सेंट्रल लाइब्रेरी की किताबें जलाने के मामले पर काफी शोर है. मंजूर जी आहत थे. बेचैन से दिखे. उनके घर के बिल्कुल करीब है वह इतिहास को समेटे हुए लाल बिल्डिंग. अरे वही जनाना हस्पताल के पीछे वाली इमारत जिसके दाहिने तरफ सडक पार करो तो शाहजहांनी पार्क पहुंच जाते हैं.
तो बात कर रहा था सेंट्रल लाइब्रेरी की. मंजूर जी कह रहे थे हर जगह होता है. सत्ता अपना काम करती ही है. इतिहास को सबसे पहले नष्ट किया जाता है. हमले की शक्ल में.
हम इराक से लेकर अफगानिस्तान तक की सभ्यताओं पर शरापा करते हैं, लेकिन बिल्कुल पास की धरोहर से नावाकिफ रहते हैं. उसे बचाने, संवारने की कोशिश का न तो हिस्सा बनते हैं और न ही समझदार नागरिक, जो अपना हस्तक्षेप दर्ज करे. अभी अभी भोपाल आया हूं यानी बहुत कुछ ऐसा ही दिखाई सुनाई देगा. खुद को तैयार कर लूं.