मैंने सीख लिया, आप सीखे कि नहीं

वो कल स्टेशन पर था. वह इसे शहर का दरवाजा कहता है. स्टेशन पर आने वाले उम्मीद भरी निगाहों से शहर को देखते हैं. कुछ अपने करीबियों से मिलने आए होते हैं तो कुछ अपने सपने साथ लेकर आए होते हैं. जाने वालों के साथ उम्मीदें होते हैं और कई के साथ सपनों का छूट गया हिस्सा. बडे स्टेशनों के बाहर शोर बहुत होता है. उनमें जो सपने पूरे नहीं हुए उनकी आवाजा सुनाई नहीं देती. उसकी आदत है वह ऐसे सपनों को उठा लेता है, जो जाते हुए लोग शहर में छोड जाते हैं. कभी पूरे न होने वाले सपनों को वह संभालता है. मैं प्लेटफार्म पर टहलता हुआ भीड के बीच अपने एक दोस्त को तलाश रहा था. वह वहीं दिखा. खाए जा चुके केले के छिलके को पैर से गिराता हुआ. उसे टोका तो बोला अभी अभी एक परिवार ने केले से अपनी भूख मिटाई थी. वे मियां बीवी और तीन बच्चे थे. पता नहीं इसी शहर के थे या किसी और शहर से लाई इच्छाओं को इस शहर में पूरा करने आए थे. वे कहीं जा रहे थे. उनके पास स्टेशन के बाहर बिकती पूरियों का अर्थशास्त्र पूरा करने लायक भरी जेब नहीं थी. सो केले खाकर भूख को पिचका दिया था. ज्यादातर छिलके पटरियों पर किसी गाय, बकरी या सफाई कर्मचारी का इंतजार कर रहे थे.
वह इन्हीं के एक हिस्से को पैर से नीचे गिराने की कोशिश कर रहा था. छिलका थोडा जिद्दी था. पहली बार में जमीन से चिपककर बैठ गया. जैसे कोई उसे उसकी जमीन से बेदखल कर रहा हो वैसे किसान की तरह. फिर जब उसने फिर अपनी चप्पल को रगडा तो वह छिलका अपने गूदे के साथ स्टेशन की खुरदुरी जमीन पर पसर गया. मुझे लगा अब वह इसे छोड देगा, लेकिन वह धुन का पक्का था. अब वह पूरी मुस्तैदी से उस छिलके को नीचे गिराने पर तुल गया था. आखिरकार उसने कर लिया. उसके चेहरे पर किसी अजनबी को फिसलन से बचाने का सुकून था. अब उसने मुझे भरपूर निगाह से देखा. मुझे वह चीजों को अपनी जमीन से बेदखल करता कोई तानाशाह लग रहा था. इतने दिनों में पहली बार मुझे उसका चेहरा बुरा लगा. लगभग घृर्णित. मैंने दोबारा उसकी ओर निगाह नहीं उठाई. परेशान करने वाली चीजों से दूरी बनाना और अनदेखा करना मुझे लगातार सिखाया जाता रहा है. अब पूरी तरह सीख गया हूं. आप सीखे हैं या नहीं?