दृश्य का चित्र बनाकर चुपचाप क्यों निकल जाती है कविता

तकरीबन पांच साल पहले की एक गर्म दोपहर में ठंडी चाय के साथ रांची में रामजी भाई ने कहा था- "इधर की कविता अपने समय का भरपूर दृश्य तो बनाती है, लेकिन उसमें मुठभेड के तरीके सिरे से गायब हैं." अनिल अंशुमन और सत्यप्रकाश चौधरी के साथ उस बैठकी में कविता पर लंबी बातचीत हुई थी. जाहिर है उल्लेखित सूत्रवाक्य उस बातचीत के कई कई संदर्भों से जुडा है, लेकिन लगता है अपने आप में भी एक मुकम्मल बयान है-हमारे समय की कविता के बारे में. अपनी कम पढने की आदत के बावजूद बीते चार पांच साल में सी कोई कविता देखने को नहीं मिली जो भीतर की आग को लय और तुक के साथ लौटाते हुए मुठभेड की शक्ल का खाका खींच रही हो. तो क्या हमारे समय की कविता अपने समय के दृश्य का एक भरापूरा चित्र भर है, या अससे आगे की कार्रवाई? मैं गलत हूं न?

कविता बेचैनी से उपजती है. यह बेचैनी स्मृति की भी है और तात्कालिकता की भी. और इसके बीच का द्वंद्व ही कवि की बेचैनी है, जो रचना में बदलती है. इस धरातल से देखें तो कविता अगर स्मृति के गहरे अवसाद और तात्कालिकता के क्रोध को जुबान देकर अपने समय का पूरा चित्र भी बनाती है, तो वह अपना काम कर जाती है. कम अज कम मेरा अधूरा कवि तो यही मानता है. इस बयान के साथ इन चार कविताओं को न जोडा जाए. जो इसी समय के दृश्यों से ली गई हैं.

इस समय : सुविधाजनक
हम सेंधमारी की सुविधा में
जिंदगी के मजे बचा ले जाते थे
हमें उत्तर को दक्षिण
या पूरब को पश्चिम करने की जल्दी नहीं थी
इसके लिए सही वक्त का आलसी इंतजार करना था
तीखी और सीधी लडाई में खेत होने का वक्त नहीं था हमारा
हमें तो सेंधमारी करनी थी
और हम दिन में सांस ले रहे थे
बहुत वक्त था अभी हमले में
सुस्ताया जा सकता था
गीत गाये जा सकते थे
खूबसूरत आंखों के
चुटकुलों को हवा दी जा सकती थी
और दोस्त की कलाई पकडकर दिखाई जा सकती थी ताकत
दुश्मन के हमले की तैयारी दिन के उजाले में भी दिख रही थी
इससे बेखबर
हम सेंधमारी की सुविधा में
जिंदगी के मजे ले रहे थे

इस समय : गौरव
पैदाइश में मिले देश, भाषा, धर्म और इतिहास पर
गर्व करने की कोई वजह नहीं थी
हमारे पास

जिये गये समय में कोई काम नहीं था
हमारे पास
जिस पर सीना फुलाया जा सके
दिनों पर रेंगती सिगरेट खाऊ सडकों पर फेंके वक्त के किसी घंटे में
आसमान की उछालने लायक
ताकत नहीं बटोर पाये थे हम

अनगिनत असफलताओं के बीच फिर भी हम
खिलखिला उठते थे
एक खरगोश देखकर
एक फूल सूंघकर
और पानी का छींटा मुंह पर मारकर

इस समय : तयशुदा
हमारे बच्चों को कभी आइडल नहीं बनना था
हमारी प्रेमिकाओं को "ओ गॉड" की रटी-रटायी ध्वनि नहीं निकालनी थी
स्टेज पर
हमारी माएं बिना वसीयत किये ही
मर जाने वाली थीं

हमारे भाइयों को कोसना ही था
पूरी दुनिया को एक अदद नौकरी के लिए

पेशेवर अपराधी की तरह बाजार में सजी
फ्लैट स्क्रीन हमारे घरों की दीवारों का हिस्सा नहीं बननी थी

जीवन की असंख्य अनिश्चितताओं के बीच
कुछ घटनाएं तय थीं
जीने और मरने के बीच
और सबसे ज्यादा निश्चित एक बात थी
कि हमें खुशियां डब्बाबंद नहीं मिलनी थीं
हमारी खुशियां हरे आसमान में खुली पडी थीं
कदम कदम पर
जैसे
हंसी, बूंद और
कांच का एक टुकडा

इस समय : मिठास
दुश्मन की रोटी कैसी भली लगती है
दिल पर रखे पत्थर को दबाकर
नजरें नीची करके, खून का घूंट पीकर
नहीं ली जाती दुश्मन की रोटी

गर्दन को गिरफ्त में लेकर
बाजुओं की फडकती मछलियों के दम पर
छीनी भी नहीं जाती
दुश्मन के हाथ से

दुश्मन की रोटी
शातिर मुस्कुराहट के साथ उठा ली जाती है
नक्काशीदार प्लेट से
साथियों का भरोसा
कोढियों में बेचकर

क्या सचमुच
यकीन से भी मीठी होती है
दुश्मन की रोटी!!
h