ये इतिहास हमारा नहीं है

इतिहास क्यों लिखा जाता है. सबक लेने के लिए? गलतियों पर लानत फेरने के लिए? अपनी ताकत को देखने की जिद का नतीजा है इतिहास. या दादाओं के घी पीने के किस्सों में अपना हाथ सूंघने की रवायत. क्यों है ये इतिहास. हमने अपना इतिहास कभी नहीं लिखा. सर्द रातों में ठिठुरते हुए अपने ही भीतर समाते रहे. अपनी मामूली जीतों पर कभी खुश हो सकने लायक वक्त भी नहीं रहा हमारे पास, कब लिखते इतिहास. जो लड रहे थे, वे कभी इतिहास नहीं लिख पाए.

इतिहास उन्होंने लिखा जो युद्ध क्षेत्र से दूर थे. नक्काशीदार सुराहियों से पानी पीते हुए लिखा गया इतिहास. सीलन भरी कच्ची दीवारें तो बस बम के गोलों से नेस्तनाबूद होती रहीं. उसके बाद वे इतिहास लिखते रहे और हम इन दीवारों को फिर उठाते रहे. गारा मिलाकर फिर आसमान और आंख के बीच एक छत बनाते रहे. इतिहास नहीं लिखा हमने.

हमने गीत बुने. खाते हुए, सोते हुए, सुबह का इंतजार करते हुए, दोपहर का वजन कंधों पर उठाये हुए और शाम की हल्की हवा को पीते हुए गीत लिखे हमने. इन्हे इतिहास नहीं माना जाना चाहिए. कविता भी नहीं. कविता तो खूबसूरत होती है. गीतों में पीढा थी. गीतों में जद्दोजहद थी. गीतों में सीलन थी. गीतों में जीवन था. खूबसूरती नहीं थी. हमने फूलों के रंग नहीं बताए. हमने नदी की कलकल नहीं सुनी. हवाओं का संगीत नहीं अगोरा. हमने तो बस अपनी बिना सपनों की आंख में भरे हुए पानी को गीतों में उलीच दिया.

इतिहास की हमें जरूरत नहीं. इतिहास जीतों का होता है. छुटपुट कामयाबियों को जीत मानने की गलती नहीं करेंगे हम. हम अपनी पूरी लय में गायेंगे इतिहास को फतह के दिन. और वह दिन आएगा. हमारी उम्र में न सही. हमारे बाद खून के आंसू पीने वालों की उम्र में भी नहीं. उसके बाद जब कभी भी आएगा. हमारे गीतों में ढूंढ लेंगे वे इतिहास के पत्थरों की नमी.