रूढ़िग्रस्त लेखक के लालित्यपूर्ण लेखन पर एक नजर


एक पत्रकार के बारे में अपनी राय कायम करने का एक आसान तरीका तो यह है कि उसके लेखन को तत्कालीन परिस्थितियों, राजनीति और माहौल के सापेक्ष रखा जाए। तात्कालिक मसलों पर जनपक्षीय राजनीतिक समझ के साथ लिखा गया पत्रकार के लिए एक बेहतर कसौटी हो सकता है। अफसोस प्रभाष जोशी जी पर इस तरह का लेखन उनकी मौत के एक हफ्ते बाद भी नहीं आया है। स्तुतिगान के भारतीय ठोंग में पत्रकार प्रभाष जोशी पीछे बहुत पीछे छूट गये। आलोक श्रीवास्तव जी ने कथादेश के स्तंभ अखबारनामा में प्रभाष जोशी पर मुस्तैद और बिना चश्मे की निगाह डाली है। आखिरकार आज नहीं तो कल प्रभाष जी को इसी नजर से देखा जाएगा।
रूढ़िग्रस्त लेखक के लालित्यपूर्ण लेखन पर एक नजर आलोक श्रीवास्तव
प्रभाष जी हिंदी के शक्तिशाली और प्रमुख संपादक रहे। शक्तिशाली इस अर्थ में कि उन्हें एक्सप्रेस समूह के मालिक का पूर्ण विश्वास प्राप्त था। वे उनके एक तरह के पुत्र या मानस पुत्र जैसे थे, ऐसा प्रभाष जी स्वयं ही कहते थे। शक्तिशाली इस अर्थ में कि उनके लिखे का व्यापक पाठक वर्ग और उसका हिंदी के पढ़े-लिखे मध्यवर्ग पर थोड़ा बहुत ही सही पर असर था, जो कि विगत वर्षों में हिंदी के किसी भी संपादक का नहीं रहा। शक्तिशाली इस अर्थ में कि समाज के सत्ताशाली वर्ग, राजनेता, प्रशासक, राजनीतिक संगठनों तक उनकी पहुंच और उनका सम्मान था और इसका उन्होंने कभी बेजा इस्तेमाल नहीं किया। शक्तिशाली इस अर्थ में कि उन्होंने कभी छुद्र निजी लाभों के लिए अपनी स्थिति को नहीं भुनाया। सचमुच हिंदी में पत्रकारिता की जो गत हो चुकी है और संपादकों का जो चरित्र और व्यक्तित्व है, उनमें प्रभाष जी का एक अलग आभामंडल था। उनके निधन पर मुझे शोक है। ठीक उसी तरह जिस तरह पिछले दो दशकों में दिवंगत हुए हिंदी के अन्य संपादकों रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, गणेश मंत्री आदि के निधन पर हुआ था। पर एक फर्क देख रहा हूं, उपरोक्त संपादकों में से कौन कद में और योगदान में प्रभाष जोशी से कमतर था? पर किसी का वैसा स्तुतिगान नहीं हुआ, जैसा प्रभाष जी का हो रहा है। बल्कि ये लोग ठीक से समाचार भी नहीं बन पाये। मुझे लग रहा है कि यह ग़लत हो रहा है। प्रभाष जी की तमाम विशेषताओं को मैं स्वीकार करता हूं। परंतु सार्वजनिक व्यक्तित्वों का मूल्यांकन उन पैमानों पर नहीं किया जाता, जिन पर प्रभाष जी का किया जा रहा है। उनके मूल्यांकन का निकष उनके विचारों में अंतर्निहित तत्व और उनके कार्यों की दिशा ही होती है। मैंने प्रभाष जी पर आज नहीं, आठ-नौ साल पहले कथादेश पत्रिका में अपने स्तंभ अखबारनामा में दो-तीन लेख लिखे थे, उन्हें भेज रहा हूं। आज फिर से प्रभाष जी पर उन बहुत सी बातों को लिखने का मन है, जिनसे सत्य प्रकट हो। पर शायद इसमें कुछ समय लगेगा। कोई भी शोक इतना बड़ा नहीं होता कि उसकी छाया में सत्य को दबा दिया जाए। मेरा न तो प्रभाष जी से व्यक्तिगत संपर्क था, न कोई व्यक्तिगत अनुभव, न ही कोई व्यक्तिगत राग-द्वेष। मैं उन्हें, उनके सार्वजनिक वक्तव्यों, उनके कॉलम कागद कारे और उनके तमाम लेखन, भाषण और कार्यों को बहुत गौर से निरखता रहा हूं। आरंभ के लगभग दस वर्षों तक तो मैंने उनके कॉलम कागद कारे की एक-एक किस्त गौर से पढ़ी है। उनकी संप्रेषण क्षमता पर मुग्ध हुआ, उसे सराहा, पर उसकी अंतर्वस्तु और उसमें निहित विचारों में मुझे हमेशा क्षुब्ध किया। प्रभाष जी हिंदी के सबसे बड़े विचारहीन, कुतर्की, और रूढ़िग्रस्त लेखक थे और अपने लालित्यपूर्ण लेखन से उन्होंने प्रतिक्रियावादी विचारों को हिंदी के एक तबके का संस्कार बनाने में सफलता भी पायी। बहुत कुछ है लिखने को। मैं जानता हूं कि भक्त लोग विक्षुब्ध हो उठेंगे – पर पाश की यह पंक्ति ही दोहराऊंगा कि यदि सारा देश उसके शोक में शामिल है, तो उस देश से मेरा नाम खारिज़ कर दो। यद्यपि मुझे उनके न होने का शोक है। पत्रकारिता में अब ऐसे लोग भी कहां बचे? अब तो अपराधी और दलाल संपादकों के रूप में सभी नहीं तो कई जगह ज़रूर विराजमान हैं, पर यह इस बात का तर्क बिल्कुल नहीं बनना चाहिए कि हम व्यक्ति का झूठा महिमामंडन करें :
कथादेश के स्तंभ अखबारनामा में प्रकाशित
कहां हैं कारे काग़दों के इतिहास-निर्माता?
30 सितंबर, 2000 को मुंबई से प्रकाशित होने वाले सांझ जनसत्ता का जब आखि़री अंक निकला, तो शायद वहां के पत्रकारों के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल था कि उनका अख़बार बंद किया जा चुका है। अमूमन यह हमेशा होता है, अख़बार बंद होने के बाद वहां कार्यरत पत्रकारों को यथार्थ की भूमि पर आने में थोड़ा समय लगता है। यह यथार्थ की भूमि यह जानना है कि वे हिंदुस्तान के उस मामूली कामगार-वर्ग के हिस्से हैं, जो हिंदुस्तान की निष्पक्ष और महान न्यायपालिका और राष्ट्रभक्त पूंजीवादी घरानों के सहअस्तित्व के ठीकरे पर दशकों से जिबह किया जा रहा है। पत्रकार अख़बारों में नौकरी करने के दौरान खुद को प्रेस-मालिकों, उनकी विचारधारा और उनके एजेंडे से इतना ज़्यादा आइडेंटीफाइ करने लगते हैं कि उन्हें प्रेस की शक्ति और प्रेस की महिमा अपनी ही शक्ति और महिमा प्रतीत होने लगती है। वे एक श्रमिक के रूप में खु़द को नहीं देखते, समाज के एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति की तरह वे अपनी आत्म-छवि गढ़ते हैं। यथार्थ की भूमि पर आने पर पता चलता है कि ज़मीन तो ख‍िसक चुकी है।
30 सितंबर को सांझ जनसत्ता बंद हुआ। उसके कुछ पहले मराठी का सायंकालीन अख़बार सांझ लोकसत्ता बंद हुआ। बंद होने के समय सांझ जनसत्ता की प्रसार-संख्या लगभग 25 हज़ार रोज़ाना थी। लगभग दर्जन भर उपसंपादक/रिपोर्टर तथा क़रीब इतने ही प्रूफ रीडर तथा अन्य कर्मचारी इसमें कार्यरत थे। प्रबंधन ने एक माह तक इंतज़ार किया कि इनमें से कुछ लोग भविष्य की असुरक्षा से तंग आकर कहीं कुछ जुगाड़ खोज कर चले जाएंगे और उनकी बला टलेगी। पर ऐसा हुआ नहीं, मुंबई में हिंदी पत्रकारिता में नौकरियों के अवसर न के बराबर हैं। जब श्रम मंत्री ने यह कह दिया कि मानसून सत्र तक वे वेतन-आयोग लागू कर देंगे, तब प्रबंधन ने जल्दी मामला निपटाने का मन बनाया। 31 अक्तूबर को प्रबंधन ने सांझ जनसत्ता के पत्रकारों को कहा कि वे एक साल का वेतन लें और दफ़ा हों। एक साल के वेतन का मतलब था अधिकतम एक लाख रुपये। वेतन-आयोग लागू हो जाने के बाद यह राशि बढ़ जाएगी, इसके अलावा प्रबंधन को वेज बोर्ड द्वारा निर्धारित पिछले दो या तीन वर्षों का बढ़ा हुआ वेतन भी देना पड़ेगा। अतः प्रबंधन ने 15 दिन का समय दिया कि इसके भीतर वे मामला आपसी-समझ से निपटा लें। इस आपसी-समझ का एकमात्र मतलब प्रबंधन द्वारा एकतरफ़ा ढंग से दी गयी भीख लेकर बेरोज़गार हो जाना है। अब यह आपसी समझ न बनी तो अदालत का रास्ता ही आख़िरी विकल्प है।
जनसत्ता का मुंबई और चंडीगढ़ संस्करण इसी वर्ष फरवरी में बंद हुआ है। दिल्ली संस्करण भी बंद होने की सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता है। वैसे यह सूचना काफी ज़ोरों से है कि इसे बंद करने से पहले एक साप्ताहिक अख़बार के रूप में निकाला जाएगा।
जनसत्ता का 17 वर्षों का जीवन और इतिहास, वहां के संपादकों और पत्रकारों की कार्य-शैली, विचारधारा और उसकी अनंत बारीकियां हिंदी पत्रकारिता को जानने के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। एक धमाकेदार और गौरवशाली साथ ही बड़बोली शुरुआत के बाद से पतन की यात्रा में अनेक मोड़ हैं, जिसके अनेक पाठ और अनेक भाष्य हैं। जनसत्ता पिछले डेढ़ दशक की हिंदी पत्रकारिता की एकमात्र कार्यशाला रहा है, जहां वामपंथ और दक्षिणपंथ के सामंजस्य और संघर्ष से एक ऐसी पत्रकारिता जन्मी, जिसने अपने लक्ष्य और स्वरूप की अस्पष्टता के बावजूद हिंदी पाठकों के एक वर्ग में अपनी पैठ बनानी शुरू की ही थी, पर प्रबंधन साथ ही संपादकों एवं संपादकीय-नीतियों की भेंट चढ़ गया। सत्ता के प्रतिपक्ष का आभास देने वाली हिंदी पत्रकारिता का यह आख़िरी प्रहसन था, जो समाप्त हुआ – पर पुराने देशज नाटकों की तरह यवनिका-पतन के पूर्व कई मंचीय कर्मकांड अभी बाकी हैं।
जनसत्ता जब शुरू हुआ तो शायद इसी गुमान में कि पार्टी आधारित और नेता आधारित राजनीति में उसका भी कोई महत्त्व होगा। पर हुआ यह कि नयी आर्थिक नीतियों, संचार-क्रांति, वैश्वीकरण और इनके माध्यम से भारत पर कसते साम्राज्यवादी शिकंजे ने पार्टियों और नेताओं वाली उस राजनीति को ही एक औपचारिकता में बदल दिया। कुछ अख़बारों का रातों-रात 10 लाख प्रसार-संख्या छूने लगना, कुछ का ताश के पत्तों की तरह ढह जाना बड़ा रहस्यमय लगता है। पर इस सारे रहस्य की कुंजी बहुराष्ट्रीय निगमों के उस बाज़ार में है, जो भारत की गांव-गलियों में पसरता जा रहा है। जिन अख़बारों ने उससे तालमेल बिठा लिया और उसके अनुरूप अपना गठन किया, वे बढ़ रहे हैं। ये अख़बार मुद्रित सामग्री के रूप में भारत की गुलाम अर्थव्यवस्था और परजीवी संस्कृति के दस्तावेज हैं। जनसत्ता किसी आदर्शवाद या इस स्थिति के प्रति प्रतिकार के कारण अप्रासंगिक नहीं हुआ, बल्कि मालिकों के अंतर्कलह, प्रबंधन की नासमझी व संपादकीय स्तर पर दिशाहीनता और विभ्रम के नतीजे में अंत को पहुंचा है। यदि वह बना भी रहता, तो एक मुनाफ़ा केंद्रित पूंजीवादी घराने के उत्पाद के तौर पर उसकी नियति थी – हिंदी के अन्य रंगीन अख़बारों की तरह अपने आपको ढालना और वैचारिकता, साहित्य-संस्कृति और सत्ता के प्रतिपक्ष आदि की भंगिमाएं छोड़ना। या तो जनसत्ता हिंदी के लगभग दर्जन भर अख़बारों की ही एक और शक्ल बनकर ज़िंदा रह सकता था। जनसत्ता जिस सामाजिक तेवर को लेकर 1983 से 1990 तक परवान चढ़ा था, उस तेवर का ज़माना बीत गया था। दो ही रास्ते बचे थे – सचमुच में जनता का अख़बार बनना, सचमुच में एक प्रतिपक्ष बनना, जिसका उसने अपनी शुरुआत से ही दावा किया था और दूसरा रास्ता था – उत्तरप्रदेश के सफल बाज़ारू अख़बारों के दिखाये रास्ते पर चलना। पहले रास्ते का मतलब होता एक पूंजीवादी संस्थान का वास्तव में एक मिशन बन जाना। जिसका कि उसने बारंबार दावा किया था, पर जो वह था नहीं। दूसरे का मतलब एक ख़ास क़िस्म की नयी पूंजीवादी दक्षता, आधुनिकीकरण व और भी बड़ा निवेश। लिहाज़ा जनसत्ता का बंद होना, वह जिस रास्ते पर था, उसकी अनिवार्य परिणति है।
पर विरोध का मुद्दा है – और वह एकमात्र मुद्दा है – प्रबंधन का कर्मचारियों के प्रति बेईमानी और लंपटता से भरा आपराधिक रवैया। उनके आर्थिक हितों को उठाईगीरों और ठगों की तरह हड़पने की कोशिशें। एक्सप्रेस जिस समय इन उत्पादों को बंद कर रहा है, उस वक्त भी उसके पास अरबों रुपये की चल-अचल संपत्ति है, जिसमें से बहुत बड़ा हिस्सा लोकतंत्र के चौथे खंभे के नाम पर उन्हीं सरकारों से वसूला गया है, जिसके प्रतिपक्षी की भूमिका में उसने अपनी आत्मछवि जनता के सामने रखी थी। कर्मचारियों के न्यायपूर्ण ढंग से बनने वाले भुगतान इन संपत्तियों का तिनका भी नहीं हैं, पर इसके लिए हर पूंजीवादी समूह ठगी और ब्लैकमेलिंग की हर कारगर तकनीक अपनाता है। उससे भी दुखद है, वहां कार्यरत कर्मचारियों की स्वाभिमान तथा अधिकारों के प्रति उदासीनता, यथास्थितिवाद और दैन्यभाव। यदि कोई भी कंपनी बंद हो रही है तो जिन कर्मचारियों ने अपने जीवन के बेहतर वर्ष वहां दिये हैं, जिन्हें अब नये सिरे से अपनी जीविका का साधन ढूंढ़ना होगा, उन्हें एकतरफ़ा तौर से साल भर का वेतन देकर निकालना ग़लत है। साल भर का वेतन भी इसलिए कि इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट, 1948 के तहत ये सभी कर्मचारी स्थायी कर्मचारियों की श्रेणी में आते हैं और अख़बार बंद होने का मतलब उनकी नौकरियां ख़त्म होना नहीं है। प्रबंधन उन्हें दूसरे विभागों में कार्य देने के लिए क़ानूनी तौर पर बाध्य है। यह एक लाख रुपये देना एक तरह की ब्लैकमेलिंग है कि अभी तो हम तुम्हें एक लाख दे भी रहे हैं। लेकर नौकरी छोड़ो, नहीं तो नौकरी से तो हम किसी-न-किसी बहाने निकाल ही देंगे, एक लाख रुपये भी गंवाओगे। मध्यमवर्गीय डर और असुरक्षा तथा निहित स्वार्थों के चलते कर्मचारियों पर प्रबंधन की ब्लैकमेलिंग का यह अस्त्र आसानी से कामयाब हो जाता है। फरवरी में मुंबई के जनसत्ता के बंद होने के बाद यही हुआ था। कर्मचारी अपनी रीढ़ें सीधी करके लड़ नहीं पाते, इसका एक कारण पत्रकारों के राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यूनियन नेताओं की घोर अवसरवादिता और प्रबंधन से मिली-भगत और भ्रष्टाचार का हाल के वर्षों का एक अद्भुत इतिहास भी है – इन पत्रकार-संगठनों के शीर्ष नेताओं की कीर्ति-गाथा का ताज़ा उदाहरण मणिसाना वेतन-आयोग की पक्षपात से भरी पूंजीवादी अख़बार-घरानों की जी-हुजूरी के शिल्प वाली रिपोर्ट है।
सांझ जनसत्ता 6 फरवरी, 1992 को मुंबई से शुरू हुआ था। थोड़े ही समय में इस सायंकालीन अख़बार ने अपनी अच्छी पैठ बना ली थी। वस्तुतः मुंबई शहर का चरित्र और जीवन इस प्रकार का है कि यहां सायंकालीन अख़बारों की अपनी ख़ास जगह है। हिंदीभाषियों की विशाल आबादी के कारण शाम के अख़बार का जल्द ही अपनी जगह बना लेना स्वाभाविक ही था। इसके संपादक सतीश पेंडढेकर बताते हैं कि अपने शुरुआती साल में यह 1 लाख की प्रसार-संख्या के आसपास रहा, जो कि शाम के अख़बार के लिए काफी थी।
जनसत्ता व सांझ जनसत्ता के विभिन्न कर्मचारियों से बातचीत के बाद जो तथ्य सामने आये वे इस प्रकार थे :
- प्रबंधन ने पिछले कई महीनों से यह आदेश दिया हुआ था कि सांझ जनसत्ता की डेडलाइन रात में 11 बजे रहेगी यानी जो अख़बार शाम का है, उसकी ख़बरें एक दिन पहले ही तय हो जाएंगी। अमूमन जिस दिन का अख़बार है, उसी दिन 10 बजे सुबह के आसपास उसका संपादकीय काम समाप्त होता है और 12 बजे तक छप कर वह बाज़ार में पहुंचता है और शाम तक बिकता है। शाम के अख़बार की डेडलाइन उसके प्रकाशन के एक दिन पहले ही रखने का सीधा मतलब है कि उस अख़बार में उस दिन की किसी भी महत्त्वपूर्ण ख़बर को कोई स्थान नहीं मिलेगा। उसमें और सुबह के दैनिक में एक ही जैसे समाचार होंगे। यह एक ही कारण अख़बार को ख़त्म करने के लिए पर्याप्त था।
- जब मुंबई से मध्यप्रदेश के दैनिक नवभारत ने अपनी शुरुआत की तो जनसत्ता के लोगों ने प्रबंधन से जानना चाहा कि उसकी क्या रणनीति रहेगी तो प्रबंधन के ज़िम्मेदार अधिकरी ने कहा, ‘कोई रणनीति नहीं रहेगी। जैसे चल रहा है, वैसे ही चलेगा।’ नवभारत का मूल्य डेढ़ रुपये था। जनसत्ता ने उसके आने के बाद अपने मूल्य को ढाई से बढ़ाकर तीन रुपये कर दिया। परिशिष्ट पहले ही ख़त्म कर दिया गया था। पृष्ठों का आकार छोटा कर दिया गया था। अख़बार का स्तर गिर गया था और मूल्य दूसरे प्रतियोगी अख़बारों से दोगुना। मुंबई भौगोलिक दृष्टि से 60 और 70 किलोमीटर लंबी मध्य व पश्चिम तथा लगभग 30 किलोमीटर लंबी हार्बर उपनगरीय रेलवे लाइनों के दोनों तरफ़ बसा है। यानी शहर कुल 150 किलोमीटर की लंबाई के दोनों ओर बसता है। स्टेशनों पर 200 से ज़्यादा बुक स्‍टॉलों के अलावा पूरे शहर भर के चप्पे-चप्पे पर कई हज़ार अख़बारों के स्‍टॉल आदि हैं। मुंबई में अख़बारों की बिक्री का एक बड़ा ज़रिया ये स्‍टॉल हैं। जनसत्ता इन स्‍टॉलों पर पहुंचता ही नहीं था। अलग से जनसत्ता का प्रसार और विज्ञापन विभाग नहीं था।
- अख़बार को पाठकों तक पहुंचना है, यह न तो प्रबंधन ने कभी सोचा, न ही सामग्री और स्वरूप तय करते संपादकों ने। संपादकों के विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं ने अख़बार का सबसे ज़्यादा नुकसान किया और उसे एक संतुलित मंच नहीं बनने दिया। ये विचारधारात्मक पूर्वाग्रह कभी सती-प्रथा के समर्थन के चरम पर पहुंचते रहे, कभी धुर भाजपा विरोध के चरम पर। इससे प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों क़िस्म के पाठक अख़बार से कटते चले गये।
- दिल्ली के मुख्य संस्करण के अलावा इस अख़बार के स्थानीय संपादकों के पदों पर चंडीगढ़, मुंबई, कलकत्ता में ऐसे लोगों को चुना गया, जिनकी पत्रकारिता के क्षेत्र में न तो कोई विशेष योग्यता थी, न ही ख़ास अनुभव। वहां के पत्रकारों के मुताबिक इनमें से एकाध ने तो निजी स्वार्थों के लिए अख़बार का ज़बर्दस्त दोहन किया। अख़बार में कार्यरत पत्रकारों को कोई प्रोत्साहन, प्रमोशन, बेहतर अवसर कभी नहीं दिया गया।
- ये अफ़वाहें हैं कि समूह के मालिक विवेक गोयनका ने लगभग हर बैंक से कर्ज़ लिया है। इसके अलावा पब्लिक-शेयर के रूप में काफी पैसा उगाहा है और अब वे दुबई में न्यूज़-प्रिंट का प्लांट लगा कर ब्रिटेन या स्विट्जरलैंड में रहते हैं। एक-डेढ़ साल से वे भारत नहीं आये हैं। उनकी पत्नी ही कारोबार देखती हैं। उन्हें इसका अनुभव नहीं है, और कंपनी के मुख्य कर्ताधर्ता शेखर गुप्ता के भी ‘आज तक’ में जाने की बातें हवा में है।
- दत्ता सामंत के नेतृत्व में 1984 में हुई हड़ताल के बाद से मालिकों ने इस बात की सावधानी बरती थी कि पत्रकार समूह में संगठित न हो पाएं। इसके लिए उन्होंने अपने ही पिट्ठुओं को यूनियन नेता बनवाया और उन्हें पालते रहे।
ये और ऐसे ही अनंत कारण हैं। पहले मुंबई और चंडीगढ़ में जनसत्ता, फिर अब मुंबई में सांझ जनसत्ता का बंद होना पूंजीवादी घरानों तथा ऐसे घरानों जहां से अंग्रेज़ी के अख़बार भी निकलते हैं, के प्रबंधन पर गहरा सवाल है। आज तक हिंदुस्तान के बड़े अख़बार मालिकों ने अपने प्रबंधन के शीर्षस्थ अधिकारियों की योग्यता और दक्षता के इस पहलू पर कभी गौर ही नहीं किया कि जब हिंदी अख़बारों के विशाल बाज़ार का विस्फोट हो रहा है तो क्यों उन्हें अपने हिंदी प्रकाशन समेटने पड़ रहे हैं?
अब बारी दिल्ली के जनसत्ता की है। बारी अब उन प्रभाष जोशी की परीक्षा की भी है, जो अक्‍सर अपने कॉलमों में जनसत्ता के कर्मचारियों का ज़िक्र इस तरह करते रहे हैं जैसे वे सचमुच एक परिवार का ही आत्मीय अंश हों, एक्सप्रेस-समूह सच का कोई बहुत बड़ा पैरोकार हो, और पत्रकारिता (जो कि मौजूदा ढांचे में पूंजीवादी उपक्रम है और उसी के उद्देश्यों से संचालित और उसके अंतर्विरोधों से भरपूर है) कोई बहुत पवित्र चीज़ हो। यह उनका नैतिक कर्तव्य बनता है कि मुग्ध भाव से वे जिस गांधीवाद का ज़िक्र करते रहे हैं और बड़ी दृढ़ता की भंगिमा में आदर्शवादी लेखन करते रहे हैं, उसका कम-से-कम आंशिक प्रमाण अवश्य दें। उन्हें गांधीवादी शस्त्रों, उपवास से लेकर कोर्ट-कचहरी तक की लड़ाई, जुलूस, प्रदर्शन – हर चीज़ में अग्रिम मोर्चे पर कर्मचारियों के साथ रहकर सिर्फ़ यह साबित करना है कि जैसा कुछ वे पत्रकारिता के माध्यम की बदौलत खुद को दिखाते रहे हैं, वह सिरे से मिथ्या नहीं था, क्योंकि यह सिर्फ़ जनसत्ता के पत्रकारों/कर्मचारियों के हितों का मामला नहीं है। यह उस बुनियादी संघर्ष का मामला है, जो श्रम और परजीविता के बीच हर युग में अलग-अलग रूपों में गतिमान रहा है। यह उन मूल्यों का मामला भी है, जो सिर्फ़ जीने से ही प्रमाणित होते हैं, न कि मात्र लिखने-बोलने से।
यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ही है, जिसने हिंदुस्तान में भिखारियों और बेरोज़गारों की फौज गढ़ रखी है, यहां की कृषि-व्यवस्था को चैपट कर दिया है। मुल्क विदेशों में गिरवी पड़ा है। पूंजीवाद की इन्हीं कारस्तानियों की सर्वोच्च कड़ी रोजगार प्राप्त श्रमिकों को बेरोजगार करना और बेरोज़गार करते वक्‍त उनके पूंजीवादी क़ानूनों में भी स्वीकृत आर्थिक हितों और जायज कंपनसेशन का भुगतान न करना और इसके लिए षड्यंत्र-पर-षड्यंत्र रचना है। यह क़तई सिर्फ़ उन थोड़े से कर्मचारियों का मामला नहीं है। यह संपूर्ण पूंजीवादी प्रणाली से जुड़ी हिंसक लूट का मामला है, जिसके परिणाम दूर तक जाते हैं। यह जनसत्ता के कर्मचारियों को भी याद रखना चाहिए और निहित स्वार्थों के बजाय विफलता की कीमत पर भी अपने आर्थिक अधिकारों की लड़ाई लड़नी चाहिए।
कुछ ही महीनों में यह दिखेगा ही हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के ये सामयिक पृष्ठ कारे कागद ही रह जाते हैं या इन पर सचमुच कोई इबारत अंकित होती है।