साम्राज्यवाद के लिए आसान शिकार नहीं है ईरान-2

Justify Fullइस लेख के पहले हिस्से में हमने देखा कि किस तरह अमेरिका परस्त राजनीति सच्चाई पर नकाब चढाकर अपने ढोल को मजबूत करती है। कैसे शैतान की धुरी को खत्म करने की कवायद की गई जो हर मुमकिन प्रतिरोध के बावजूद अमेरिकी अकड को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकी। आर्थिक मंदी के बाद भी जिस बेशर्मी से पूंजीवाद के राग को साम्राज्यवादी घोडे के साथ दौडाया जा रहा है, उसमें यह बात भुला दी गई है कि दुनिया के कुल संसाधनों के 70 फीसदी हिस्से पर मह 11 फीसदी लोगों का कब्जा है और ये लोग भी 10 सबसे अमीर देशों के बाशिंदे हैं।
परमाणु राजनीति और तेल राजनीति के नक्शे की इबारत बहुत साफ हो चुकी है और इसके फायदे नुकसान की हदें भी तकरीबन नुमायां हो चुकी हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नवउदारवादी चोला पहने साम्रज्यवादी शासकों की चालें किस तरह संस्कृति के बीहडों से अपने काम के हथियार उठाते हैं उनकी नोंक पर मासूम जनता की गर्दन रखते हैं। विनीत तिवारी इस मसले को इस्लामिक देशों की सीमाओं से बाहर लाकर एक नयी दृष्टि से देखते हैं। दजला फरात की संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के बाद अगले निशाने की तस्वीर यहां साफ होती है।

तेल का मामला : परमाणु का मामला

-विनीत तिवारी
तेल और परमाणु बम का डर, अमेरिकी मानसिकता पर कितना हावी है, इसका अन्दाजा इन दो अमेरिकियों के कम्प्यूटरीकृत लिखित वार्तालाप यानी चैटिंग से लगाया जा सकता है।

एक-ईरान ने ओबामा का कहा नहीं माना, अब क्या होगा?
दो-हो सकता है ईरान से युद्ध छिड़ जाए!
एक-ऐसा हुआ तो पेट्रोल के दाम काफी बढ़ सकते हैं।
दो-ऐसा नहीं हुआ तो ईरान परमाणु बम बना लेगा। और अगर उसने परमाणु बम बना लिया तो वो अमेरिका पर उसे डालेगा। अगर अमेरिका पर बम गिरा तो पेट्रोल के दाम बढ़ने से तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि मुर्दे कार नहीं चलाया करते।

जिस तरह यह तथ्य सभी जानते हैं कि सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भण्डारों का 60 प्रतिशत पश्चिम एशिया में मौजूद है-
-कि अकेले सउदी अरब में 20 प्रतिशत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिशत, और इराक और ईरान में 10-10 प्रतिशत तेल भण्डार हैं.
-कि ईरान के पास दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भण्डार है.
-उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी न लोकतन्त्र में, न आतंकवाद खत्म करने में, न दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में बल्कि उसकी दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इस जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है।
-अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्त्रोतों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत तेल पर काबि होने की है।

दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वो ईरान को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल ये है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई न कोई करेगा।

याद कीजिए कि अमेरिका ने 2003 में इराक पर जंग छेड़ने के पहले ये आरोप लगाये थे कि उसके पास परमाणु हथियारों व जनसंहारक हथियारों का जखीरा मौजूद है। तब संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा कई मर्तबा इराक में सद्दाम हुसैन की स्वीकृति के साथ की गईं जांच-पड़तालों के बावजूद ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी का अस्तित्व प्रमाणित नहीं किया जा सका था। आज जबकि सद्दाम हुसैन को सूली चढ़ाया जा चुका है और इराक में अब अमेरिकी समर्थन की सरकार बैठी है, तब भी ऐसे किन्हीं हथियारों की बरामदगी नहीं हो सकी है। अमेरिका के लिए दोनों ही स्थितियां फायदे की थीं। अगर इराक के पास परमाणु हथियार पाये जाते तो वो इराक के खिलाफ व अपने पक्ष में विश्व में और जनमत बढ़ा लेता और इराक पर हमला करने का नया बहाना ढूंढ़ लेता। और अगर नहीं निकले तो उसे ये तसल्ली हो जाती कि इराक अमेरिकी फौज या अमेरिका का उतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता जितना किसी परमाणु बम से हो सकता है जांच-पड़तालों से उसे इराक के सामरिक महत्त्व के ठिकानों की जानकारी तो हो ही गई थी।

यही रणनीति अमेरिका ईरान के लिए अपना रहा है। ईरान द्वारा परमाणु हथियारों के निर्माण की अमेरिकी कहानी को अब तक किसी सूत्र ने प्रमाणित नहीं किया है। यहां तक कि अन्तरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी(आईएईए) के तमाम निरीक्षणों ने भी ईरान की ऐसी किसी कोशिश पर अपनी मुहर नहीं लगायी है। बल्कि 2009 की सितम्बर में ईरान ने आईएईए के निरीक्षक दल को अपने परमाणु संवर्धन के ठिकानों का निरीक्षण भी करवाया जहां ईरान अपने यूरेनियम का उस सीमा तक संवर्धन करता है जिससे उसका उपयोग कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज और बिजली बनाने के लिए किया जा सके। परमाणु अप्रसार संधि का हस्ताक्षरकर्ता देश होने के नाते ईरान को शान्तिपूर्ण मकसद से ऐसा करने का अधिकार भी प्राप्त है।

अनेक पश्चिमी परमाणु वैज्ञानिकों का मानना है कि ईरान के पास वो तकनीक है ही नहीं जिससे यूरेनियम में शामिल मॉलिब्डेनम की अशुद्धि को दूर कर उसे हथियार के तौर पर उपयोग के लायक बनाया जा सके। कुछ का अनुमान है कि उस तकनीक को पाने में ईरान को करीब 10 वर्ष का समय लग सकता है।

परमाणु बम बनाने के लिए 80 प्रतिशत तक प्रसंस्कारित किये गये यूरेनियम की जरूरत होती है, जबकि खुद अमेरिकी सूत्रों के मुताबिक ईरान ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिशत तक प्रसंस्करण की क्षमता विकसित कर सकता है। यह क्षमता वो पहले भी हासिल कर सकता था, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका ने अनेक प्रकार से स्थगित करवाये रखा। अक्टूबर 2009 में वियना में हुई बैठक में ईरान इस बात के लिए भी राजी हो चुका था कि वो अपने पास उपलब्ध अल्प सवंिर्धत यूरेनियम (लो एनरिच्ड यूरेनियम) का एक बड़ा हिस्सा फ्रांस और रूस को भेज देगा जो उसे इतना प्रसंस्कारित कर लौटाएंगे कि उसका इस्तेमाल परमाणु हथियार बनाने में न किया जा सके। वियना वार्ता में अपने असंविर्धत यूरेनियम का कुछ भाग देने के लिए ईरान राजी भी हो गया था, लेकिन अमेरिका ने जिद रखी कि ईरान को अपना पूरा ही यूरेनियम प्रसंस्करण हेतु दे देना चाहिए।

इसके लिए अहमदीनेजाद को देश के भीतर आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा कि वो अमेरिका के बहकावे में आकर अपने देश के यूरेनियम से भी हाथ धो बैठेंगे। आलोचकों ने, जिनमें ईरान के परमाणु मामलों के जानकार भी शामिल थे, यह आशंका भी व्यक्त की कि पिश्चमी देश वो यूरेनियम ईरान को लौटाएंगे ही नहीं जो उन्हें प्रसंस्कारित करने के लिए दिया जाएगा।

अमेरिका का कहना था कि ईरान थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्करण के लिए देकर बचे हुए में से बम बना सकता है। जबकि ईरान का कहना था कि पहले हमारा थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्कारित करके वापस करो तब हम और देंगे। इसी की आड़ लेकर अमेरिका व जर्मनी ने 28 जनवरी 2010 को ईरान पर नये व्यापारिक व आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिये जिनके तहत कोई भी इकाई यानी कोई व्यक्ति, कंपनी या यहां तक कि कोई देश भी अगर ईरान के साथ रिफाइण्ड पेट्रोलियम का व्यापार करता है तो उसे कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पउ़ेगा। पहले से जारी तीन प्रतिबंधों के साथ ये नये प्रतिबंध ईरान को अकेला करने की एक और कोशिश हैं। इतना ही नहीं, प्रतिबंधों की घोषणा के तत्काल बाद ईरान की सीमाओं पर अमेरिका की सैन्य उपस्थिति भी बढ़ा दी गई है।

अमेरिका के इस रवैये पर 9 फरवरी 2010 से ईरान ने अपने यूरेनियम का प्रसंस्करण करने का कार्यक्रम शुरू कर दिया है और साथ ही अपनी परमाणु हथियार न बनाने की मंशा जाहिर करने के लिए ईरान ने मई 2010 में परमाणु निरस्त्रीकरण के मसले पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की घोषणा भी की है।

यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि अगर 1979 की क्रान्ति न हुई होती और अभी तक ईरान में शाह पहलवी की ही हुकूमत होती तो खुद अमेरिका के समर्थन से ईरान परमाणु शक्ति संपन्न बन गया होता।

अमेरिका के चहेते शाह पहलवी ने परमाणु हथियार बनाने की मंशा का खुलेआम ऐलान किया था और उसके लिए परमाणु ईंधन और परमाणु रिएक्टर अमेरिका ने ही मुहैया कराये थे। 1979 की क्रान्ति के बाद अयातुल्ला खुमैनी के जमाने से अब तक ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देशों की जमात में शामिल होने के लिए कभी उत्सुक नहीं रहा है। खुद अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद अनेक दफा सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि परमाणु हथियारों को रखना इस्लामिक क्रान्ति के मूल्यों के खिलाफ है।
इन तकनीकी सवालों व अनुमानों को और धार्मिक या राजनीतिक बयानों को छोड़ भी दिया जाए तो ये सवाल पूछना तो लाजिमी है कि वे कौन हैं जो दुनिया की नैतिक पुलिस बनकर परमाणु हथियारों के मामलों में ईरान के खिलाफ मुश्कें चढ़ा रहे हैं। खुद अमेरिका के पास न केवल दुनिया के परमाणु हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा है बल्कि दुनिया के अब तक के इतिहास में वही एकमात्र देश रहा है जिसने किसी देश की लाखों की बेकसूर नागरिक आबादी पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर समूचे मानव इतिहास में नृशंसता की सबसे बड़ी मिसाल कायम की है। और फिर खम ठोक कर परमाणु हथियार बना चुके पाकिस्तान, भारत, उत्तरी कोरिया और इजरायल पर भी ईरान जैसी सख्ती नहीं की गई तो ईरान से ही खलनायक की तरह क्यों व्यवहार किया जा रहा हैंर्षोर्षो इजरायल के परमाणु कार्यक्रम की जांच का प्रस्ताव तो अमेरिका हर बार अपनी वीटो शक्ति का उपयोग करके गिराता रहा है।

विनीत तिवारी,
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(समाजवाद के यकीनी स्वप्न को आंख में पालने वाले विनीत यांत्रिकी में पत्रोपाधि के बाद बारास्ता पत्रकारिता आंदोलनों में शरीक हुए। नर्मदा बचाओ आंदोलन से गहरा जुडाव। मार्क्सवादी दुनिया के पैरोकार। इन दिनों भारतीय कृषि पर एक विस्तृत अध्ययन करने वाली टीम के कोर मेंबर्स में से एक।)