मध्यवर्गीय अच्छापन और लूट का एक किस्सा

कुछ लोग बहुत अच्छे होते हैं। सारा जीवन अपनी धुन में गुजार देते हैं। किसी को परेशान करते हैं, बडे ईमानदार। मजाल है किसी की पाई भी हाथ में रख लें। जहां कोई भिखारी देखेंगे जेब तक हाथ पहुंच जाएगा और सिक्का भिखारी की झोली में डालकर इस संतुष्टि से उनका चेहरा दमकता है कि जैसे आज इस पुण्यकर्म के साथ दिन की बेहतरी का बंदोबस्त भी हो गया। कुछ इनसे भी ज्यादा अच्छे होते हैं। वे किसी राह चलते बच्चे को स्कूल तक पहुंचा आते हैं, कई तो आसपास के बच्चों को घेरघार कर एक दो दिन हफ्ते में पढा भी देते हैं। कुछ लोग अपने आस पडोस के लोगों को इलाज के पैसे दे देते हैं। इसी तरह के अन्य कई पुण्य कार्य। कई किस्म के। यह सारा पुण्य हिसाब में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों के पुण्यों से अलग किस्म का है। इसमें संतोष के साथ दुनिया के लिए कुछ करने का सुकून भी शामिल होता है।
हमारे आसपास ऐसे कई जीव हैं. सच कहूं तो मुझे उबकाई आती है. इस किस्म की अच्छाइयों पर। यह एक किस्म का भोलापन भी है और असल मुद्दों से आंख चुराने की अदा भी। एक मित्र हैं। दिल्ली में रहते हैं। "मैं ये करता हूं", "मैं वो करता हूं" "मैंने तो ये किया: "मैं तो ऐसा ही हूं", मार्का उनकी बातचीत में वे खूब हावी रहते हैं। मैं चुपचाप उनकी बात सुनता हूं। वे ज्ञान देते हैं- "इन भिखारियों को देखो। अरे, भाई हजार रुपए रोज कमाते हो, 10 रुपए इनको दे दिये तो क्या बिगड गया। मैं तो रोज दस रुपए दान में विश्वास करता हूं।" मैं मुंडी हिलाकर उनकी बात का समर्थन करता हूं। वे उत्साहित होते हैं फिर बताते हैं, "मुझे कोई फर्क नहीं पडता कोई मेरे बारे में क्या सोचता है। मैं तो मर्जी का मालिक हूं। जो मन करता है सो करता हूं" मेरा सब्र टूटने लगता है। मैं "हूं" से काम चला लेता हूं।
लेकिन वे इसे आगे बढने का संकेत समझते हैं। फिर शुरू हो जाते हैं। वे भी अच्छे आदमी हैं। मुझे उन्हें देखकर लेनिन याद आते हैं। अपनी युवावस्था के दौरान लेनिन ने अकाल के दौरान मिलने वाला खैराती खाना खाने से इंकार कर दिया था।

असल में ये जो व्यवस्था के साथ नाभिनालबद्ध समुदाय है। ताकतवर और कुछ भी कर सकने में सक्षम या यूं कि बिना कोई उत्पादन किये अपनी मर्जी का काम करने वाला अनुत्पादक वर्ग वह श्रम को नीचा दिखाने के लिए इस तरह की अच्छाइयों को पोषता है। दिल्ली, मुंबई, से लेकर भोपाल, जयपुर तक एक नया वर्ग तैयार हुआ है। वह अपनी जोड तोड की शैली में जीने की जरूरत से ज्यादा कमाता है और उसे अपने ऊपर एय्याशी में खर्च करता है। यह वर्ग इसी अनुत्पादक कमाई का कुछ हिस्सा, बेहद छोटा हिस्सा अपनी नीचे फेंककर कुछ करने का सुकून पाता है और व्यवस्था में ज्यादा लोगों की बदतरी का बायस बनता है।

एक तथ्य के साथ बात खत्म करते हैं। अगर दुनिया की कुल आबादी का भाग दुनिया की कुल संपदा में दिया जाए तो प्रति व्यक्ति संपत्ति का आंकडा निकलेगा। जिन लोगों के पास उससे ज्यादा संपत्ति होगी वे अमीर और जिनके पास उस औसत संपत्ति से कम होगा वे गरीब होंगे। अगर कोई भी इस औसत से ऊपर है, तो जाहिर है वह कम से कम दो लोगों की संपत्ति हडपे हुए है। यानी पहली नजर में ही दो तिहाई लोग औसत से बुरे हालात में मिले।

अच्छे लोग एक तिहाई हैं, जिन्हें मध्यवर्ग भी कह सकते हैं। वे जो इस पिरामिड में सबसे ऊपर हैं अभी उनके बारे में जिक्र करना ठीक नहीं। उनके कानों में तेज संगीत और जिस्म में तीखी शराब है। फिलवक्त आप देखें आप औसत के किस तरफ हैं?