यह उसका आखिरी मेल है। बचपन के पहले दोस्त का आखिरी मेल। दर्ज तारीख इसे आठ माह पुराना बता रही है। इस मेल के लिखे जाने के ठीक 48 दिन बाद उसने आखिरी वाक्य बोला होगा। जिसके बारे में अगर कोई अनुमान लगाया जा सकता है तो यह कि वह उम्मीद का कोई वाक्य होगा। हां, विकास उम्मीद से लबरेज था। ज्यादा गुस्से के कारण उसका चेहरा खिंचा हुआ रहता था और उसके हर बोले गये वाक्य के बीच कडवाहट स्थायी होती जाती थी। वह दुनिया को जितना देखता जा रहा था उतना ही गुस्से से भरता जा रहा था। उससे आखिरी मुलाकात चित्रकूट में हुई थी। उस आखिरी मुलाकात और उसके पहले की मुलाकात के बीच तकरीबन 15 साल का फासला था। अब यह फासला कभी खत्म न होने वाले इंतजार में बदल चुका है। अब वह कहीं नहीं है। कल रात उसकी मौत की खबर पढी। वह 18 जुलाई को नहीं रहा, लेकिन मेरे लिए वह आठ माह ज्यादा जिया। उसकी मौत से आठ महीनों तक अनजान बना रहने का दुख इस दुख से बडा है कि वह अब न कभी बोलेगा, न लिखेगा और न हंसेगा। ब्लॉग से दूरी ने इस जिंदगी को बढाया। गांव में उसके साथ गुजारे चार मासूम सालों की याद के बीच उसके चेहरे को देखते हुए उसी की यह कविता।
नवरात्री का विरोधाभास
होटल के प्रांगण में
चल रहा था जश्न
झूम रहे थे लोग
लिये डांडिया की स्टिक हांथों में,
गहरी लिपस्टिक लगे हुए होठों पर
फैली थी मुस्कान।
डस्टबिन में पड़ी हुई थीं
बहुत सारी आधी खाई हुई प्लेटें,
यही होती है समृद्धि की पहचान।
लोग खुश थे,
निश्चिंत थे।
मगर होटल के बाहर
बैठा है एक वृद्ध
इस आस मे
कि पड़ेगी किसी
समृद्ध की नज़र
इस पर
और वह
डालेगा कुछ चिल्लर
इसके कटोरे में।
जिस से वह खरीदेगा कुछ आटा
और भरेगा पेट अपनी बीवी
और तीन बच्चों का।
नहीं तो आज फिर होगा उपवास
नवरात्री के पर्व पर
माता का नाम लेकर।
चल रहा था जश्न
झूम रहे थे लोग
लिये डांडिया की स्टिक हांथों में,
गहरी लिपस्टिक लगे हुए होठों पर
फैली थी मुस्कान।
डस्टबिन में पड़ी हुई थीं
बहुत सारी आधी खाई हुई प्लेटें,
यही होती है समृद्धि की पहचान।
लोग खुश थे,
निश्चिंत थे।
मगर होटल के बाहर
बैठा है एक वृद्ध
इस आस मे
कि पड़ेगी किसी
समृद्ध की नज़र
इस पर
और वह
डालेगा कुछ चिल्लर
इसके कटोरे में।
जिस से वह खरीदेगा कुछ आटा
और भरेगा पेट अपनी बीवी
और तीन बच्चों का।
नहीं तो आज फिर होगा उपवास
नवरात्री के पर्व पर
माता का नाम लेकर।