एक मर चुके दोस्त के लिए

विनय तरुण की मौत 22 जून को हुई। 28 अगस्त को उनके गृह नगर पूर्णिया में एक कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम में हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व होने पर साथियों में रोष है। जिस मैं अखबारी संवेदनहीनता से ऊपर सवालों से बचने की कोशिश मानता हूं। सत्ता संचालित मीडिया सवाल पसंद नहीं करता। बडे अखबार तो बिल्कुल नहीं। ऐसे समय में हमें हरिवंश जी जैसे संपादक भी याद आते हैं, जो साथियों की निजी समस्याओं के व्यावहारिक हल सुझाते हैं और मौके बेमौके निजी परेशानियों को व्यक्तिगत स्तर पर हल भी करते हैं। बहरकैफ यह बहस का मुद्दा है कि क्यों संपादक हृदयहीन होते जा रहें हैं, और क्यों हम गधा पचीसी करते हुए घोडे होने का भ्रम पाले हुए हैं? मुझे लगता है अब बातचीत कार्यक्रम में उठाये गये बिंदुओं पर करनी चाहिए। क्षेत्रीय पत्रकारिता के जिस मर्ज पर हम बात कर रहे थे, कार्यक्रम में आना उसका बेहद छोटा हिस्सा है। सो बात आगे बढे। मैं कार्यक्रम में नहीं था, सो अभी महज विनय को ही याद कर लूं। विनय को याद करते हुए यह कुछ शब्द जो स्मारिका के लिए लिखे थे।


होने और न होने का अफसोस
(विनय तरुण को समर्पित)

जरा-सा फासला होता है
जिंदगी और मौत के बीच
एक सूत भर
एक सांस भर
एक फैसले का वक्त
जिस वक्त तुमने एक जरूरी फैसले की जल्दबाजी की
ठीक उसी वक्त की बेचैनी में
हम सब अपनी-अपनी मांदों में पुरसुकून थे
तुम्हारी आखिरी सांस के साथ मुंदती आंखों में जो सपना था
वह भी बुझ गया है
अपनी पर्यटनशील रचनाधर्मिता के तले
जो बोये थे बीज तुमने
उन्हें जमीन का सीना फाड़ते नहीं देख पाओगे
अफसोस, विनय! अफसोस

हम अब भी देखते रहेंगे एक झिलमिलाती झील
जिसे निहारते थे तुम
वीआईपी रोड1 से
पानी की सफेद, फिर पीली और फिर हरी होती सतह
अपनी शरारती आंखों से
झांसा देते रहे तुम झील को
जो किस्से सुनती थी हमारे गौहर महल2 के साथ
पानी को बहलाने में माहिर थे तुम
काश, मौत को भी बहला लेते
तो यह सूनापन भरने की तरकीबें न खोजते हम
अफसोस, विनय! अफसोस

तुमने जो जिंदगी पहनी थी
उसे दिल से जीया
पत्थर-सा दिल किये रहे
भूकंप से ठही इमारतों के साये में
कराहों की टोह लेते भी
जिंदगी की बेबस हो चुकी सांसों को तुमने थाम लिया था
सामाख्याली3 के जंगलों में
कांपते नहीं थे तुम्हारे हाथ
जमीन के भीतर होती हलचलों के बीच कुंडी खोलने से
तुम जो खुले आसमान के नीचे बिछाते थे
महफिल दोस्तों की
और कहते थे- 'दोस्ती एक मशविरा है
जो दिल को दिया जाता है'
कितना खुश होते थे
जिस्म पर
देखकर धूल-मिट्टी और मेहनत कीकीरें
बहते खून के बीच आखिरी वक्त में तुम कैसे धोखा खा गये
यह तथ्य तुम्हारे जाने के साथ
हमेशा के लिए बन गया रहस्य
अफसोस, विनय! अफसोस


जब तुम खामोश हुए
उस वक्त भी बहुत शोर था
तुम्हारे भीतर तो यकीनन
और बाहर बची दुनिया में भी
शर्मनार्क शर्तों को तुमने हमेशा अंगूठा दिखाया
इनकार के यकीन को तुमने बख्शी इज्जत
में दिया फक्र अपना दोस्त होने का
देखो तो कैसा तना है सीना
अखलाक, रंजीत, पुष्य, प्रवीण, पशुपति4 का
तुम देख पाते तो यकीनन हंसते
हम तुम्हारी हंसी के साथ हंसते
अफसोस, विनय! अफसोस

कोई नहीं सोचता
मौत के बारे में
तुमने भी नहीं सोचा था
इस तरह मरने के बारे में
तुम जो लकीरों में ढूंढते थे आने वाले वक्त की चाबी
जानते थे कि किस्मत जैसा कुछ नहीं होता
रेत के टीले से विश्वास को तुम
बना देते थे आस्था की मजबूत इमारत
और ईश्वरीय धाक को काटकर
अपनी कमजोरियों के कालेपन
से उजागर कर देते थे खूंखार सच्चाइयां
तुम जो मनोविज्ञान के आसान नियमों से
पढ़ते थे भीतर की उथल-पुथल
बेबुनियाद बातों को देते थे बुनियाद
कमजोर होते इरादों को कर देते थे मुकम्मल सफलता में तब्दील
कैसे नहीं लगा पाये गति के आसान नियम का अंदाजा
कदम कैसे भटक गये तुम्हारे
अफसोस, विनय! अफसोस


जो कराह निकली थी
भागलपुर से उसमें भीग गये
भोपाल, हैदराबाद, रांची, पटना, दिल्ली और न जाने कितने शहर
भरे-पूरे न्यूजरूमों में
खबरें कतरने में माहिर दाढ़ीदार हाथों को
लकवा मारा था तजुर्बेकार जबड़ों को, सहमे से हाथों ने अगले ही पल
भरोसा दिलाया
कि खबरें झूठी भी होती हैं
तुमने कभी झूठी खबर से नहीं किया समझौता
मौत से कैसे करते?
अफसोस, विनय! अफसोस

अंधेरे और सीलन भरे कमरों में गुजारते वक्त
बेमालूम सी गलियों में भटकते
सुनहरे दिनों की आस में
हार को धकेलते पीछे
तुम जानते थे कि हम एक दिन भूल जायेंगे
तुम्हारी मौत के साथ कुछ भी नहीं बचा है तुम्हारा
सिवाये यादों के
हमारे दिलों में कितने दिन जिंदा रहोगे
जिंदगी के कारोबार कहां याद रखने देंगे तुम्हारी मासूम हंसी
अफसोस, विनय! अफसोस

संदर्भ :
1. भोपाल की झील के साथ सटी वीआईपी रोड, जहां विनय तरुण के साथ हमने कुछ शामें बिताई हैं।
2. गौहर महल भोपाल के नबाबी दौर की एक इमारत है।
3. भुज भूकंप के दौरान विनय तरुण अन्य साथी सामाख्याली कैंप में दो दिन रहे थे।
4. विनय तरुण के कुछ मित्रों के नाम