बीते हुए वक्त की कुछ प्रेम कविताएं

करीब डेढ़ साल पहले की डायरी के पन्ने पलटते हुए कुछ पंक्तियां मिलीं। अप्रैल 2009 की। उन दिनों एक बड़ा बदलाव जो खुद में महसूस कर रहा था वो प्रेम के प्रति सघनता था। अब जब वह प्रेम एक "मुकाम " पर लग गया है और वह "प्रेमिका " "दूर" है, तो इन पन्नों को पलटना एक इतिहास की तंगदिली से गुजरना भी है। ऐसा होता है। जब हम किसी से प्यार नहीं करते, यानी खुद से और सबसे प्यार करते हैं, तो यह सघनता क्रिएटिव फार्म में आती है। दूरियां इस क्रिएटिविटी को बढ़ाती हैं। अकेलेपन का मौसम उनमें बार-बार बरसता है। इस समय प्रेम उतना ही मुश्किल लगता है, जितना सांस लेना। आप चाहकर नहीं कर सकते यह। यह होता रहता है।

जो लोग कहते हैं कि वे किसी से प्यार नहीं करते, नैसर्गिक नहीं, दुनियावी-चालू अर्थ का प्रेम भी, तो वे झूठ बोलते हैं। यह संभव ही नहीं, हम हमेशा किसी के प्रेम में जकड़े हुए होते हैं। सोते, जागते, रोते, खाते, ऊंघते, दौड़ते और यकीनन शराब पीते हुए।
प्रेम करना भी कितना आसान है। असल में मुश्किल उन्हें होती है, जो अपेक्षा कर लेते हैं। उन प्रेमियों पर मुझे तरस आता है, जिन्हें प्रेम करते हुए अपेक्षा करने का समय मिल जाता है। उतनी देर के लिए वे प्रेम से बाहर निकल आते हैं। इस पर तरस ही तो किया जा सकता है।

फिलहाल ये वे पंक्तियां जो डायरी से निकाली थीं। एक कवि के लिए सबसे मुश्किल कविता की भाषा से खुद को अलग करना होता है। और मेरे लिए तो प्रेम कविता लिखना ही एक दुरूह काम है। दुनिया की बदतमीजियों में उलझा होने के कारण इस तरफ कम ही जाना होता है। इसलिए यह सूत्र वाक्य सच ही लगता है कि 'प्रेम को दुनिया में स्त्रियों ने बचा रखा है'। यहां सुविधा है पाठक से कहने की सो कहे देता हूं कि ये करीब डेढ़ साल पहले की पंक्तियां हैं, सो मौजूदा संदर्भ में इन्हें न देखें। वैसे अगर मौजूदा संदर्भ में भी ठीक लगें तो इसे कविता का कालजयी होना नहीं, प्रेम का सार्वभौमिक कहना ही पसंद करूंगा। आपकी आप जानें।

इस फार्म में बहुत दिनों बाद हाथ आजमाए थे। लुधियाना के बारे में लिखे थे दस चित्र इस फार्म में। उसके बाद डेढ़ साल पहले यह पंक्तियां उसके बाद इस विधा को छुआ ही नहीं। आज अचानक सामने आ गईं। उस वक्त ब्लॉग पर डाल नहीं सका था। और अब इस लोभ को दबा नहीं पा रहा। सो बिना किसी पूर्वाग्रह के पढिय़े और बताइये कहां मार खाई?


तुम
खुद में गुम
मैं
तुम में गुम
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यहां आओ
तुमने कहा
मैंने सुना
और करीब आओ न
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तुमने अपने हाथ पर रखी
दूसरी हथेली
मैं समझा
तुमने छू लिया मुझको
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पसीना पोंछा तुमने
आंसू भी पोंछ दिया
मैं प्यासा ही रहा
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तुम्हारी हंसी
होंठों से गिर पड़ी
मैं उठाता
उसके पहले ही उड़ चली
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बैठे रहे करीब
कोई आवाज नहीं
एक-दूसरे में उतर गये
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प्रेम में शामिल पत्ता
हाथ से टकराया
फिर गुजरा जमाना याद आया
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जादू सी बातें
सीपी से बोल
कितना गहरा खोल
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कब से शुरू हुआ
आंखों का पढऩा
जब से शुरू हुआ
बातों का गडऩा
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मीठे बोल
बोले नहीं
कभी कभी फिसल गये
उन्हीं से चलता रहा प्रेम
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बाल उड़ते रहे
बातें साथ-साथ चलीं
सारा पानी बह गया
बची रही नमी
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पेंटिंग: प्रीति चतुर्वेदी, लखनऊ