क्यों लिखें हम सकारात्मक खबरें?

बराक ओबामा चले गये हैं। दो दिन तक हम पागलों की तरह उनकी एक-एक हरकत पर डोलते रहे। कैमरे के फ्लैश और न्यूज रूम के दिमाग तेजी से चलते रहे। ऊपरी तौर पर देखें तो हर एंगल से खबरें परोसी गईं। ओबामा की ताकत से लेकर कार और उनके दल में आये लोगों की खासियतों से लेकर वे कहां कहां गये, जायेंगे और यहां तक की मिशेल की खरीदारी भी बच न सकी, 'खोजी' नजरों से।

सुर्खियों में राखी सावंत आईं, इधर सुदर्शन ने भी अपने विवादास्पद बयान से पहले पेज पर जगह पाई और उधर महाराष्ट्र में पृथ्वीराज की ताजपोशी भी कई जगह ब्रेकिंग रही। इसी बीच सचिन के 50वें टेस्ट शतक का इंतजार भी होता रहा। हैदराबाद पर निगाहें जमी थीं लेकिन हरभजन लीड ले उडे। अब राजा सुर्खियों में हैं। यह मसला कुछ दिन खिंचेगा। इधर कल लक्ष्मी नगर में बिल्डिंग गिरी। दिल्ली का मलबा सब पर भारी होता है। सो बस यही चला।

मगर मैं दूसरी जगह अटका हूं। दीवाली बीत चुकी है और इस दीवाली पर 'सकारात्मक खबर' का भूत फिर न्यूजरूमों में फैला रहा। अभी कल राखी सावंत के इंसाफ को कठघरे में रखने वाले वक्ता भी सकारात्मक खबरों की वकालत करते रहे थे। आखिर हमसे सकारात्मक खबरों की अपेक्षा क्यों की जाती है? जबकि यह तय है कि हमें हमेशा विपक्ष की बैंच पर बैठना होता है। अगर चौथी खंबे की बुनियाद में सकारात्मकता खबरें डाल दी जायें तब सोचिए खबरिया दुनिया का क्या हाल होगा?

मुझे
लगता है कि एक पत्रकार को अपनी नजर बुरे पर ही रखनी चाहिए। गड़बडिय़ों पर। जो अच्छा है उसके लिए पीठ ठोकना काफी है लेकिन असली बात है कि आप किन बुराइयों, खामियों को सामने ला रहे हैं। जब हम अपने आदर्श पत्रकारों की बात करते हैं या उनकी खबरों का जिक्र करते हैं, तो यह बात और साफ हो जाती है। जो घोटाले सामने ला सके, जिन्होंने समाज की कालिख को दिखाया, जिन्होंने दुनिया को बदशक्ल बनाने वाले काले चेहरों को बेनकाब किया, हम उन्हें ही याद करते हैं। गुडी-गुडी लिखने का अपना मजा है और इससे परहेज नहीं किया जा सकता लेकिन यह पत्रकारिता का एक अंश ही हो सकता है। मनोरंजन की खबरों से अलग किसी व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों पर हम खबरें परोसते ही हैं।

जब हम पर यानी मीडिया पर आरोप लगता है कि हम सिर्फ नकारात्मक खबरें दिखाते हैं, तो यकीन जानिये मुझे अच्छा लगता है। हमें नकारात्मक खबरें ही दिखानी चाहिए। हकीकतन चौथे खंबे के पहरेदारों को तो विपक्ष की बैंच पर ही बैठना है।

अभी कल एक मित्र से बात हो रही थी। उनसे पूछा कि भारतीय मध्यवर्ग का आकार कितना होगा? उन्होंने जवाब के बजाय उच्च और निम्न की कैटेगरी थमा दी। इधर में वर्ल्ड बैंक, एनएसएस और ईपीडब्ल्यू के साथ राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के आंकडे देखता रहा। ऊपरी तौर पर देखें तो देश में 35 करोड गरीब, जिन्हें दो जून का खाना भी बमुश्किल नसीब है और 30 करोड निम्न मध्यवर्ग रहता है, जो अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए हाड तोड मेहनत करता है। यही वह भारत है, जिसके लिए हजारों योजनाएं और करोडों की सरकारी मदद नाकाफी साबित होती है। दूसरी तरफ 30 करोड की जनसंख्या वाला उच्च मध्यवर्ग है, जो मॉल्स में बर्गर पिज्जा खा रहा है और अंतरराष्ट्रीय बाजार का बडा हिस्सा है। इसी के आसपास हमारा मीडिया, सरकार और व्यवस्था है। यह भारत के उन 35 शहरों में बसता है, जो दुनिया के ग्लोबल विलेज के मुहावरे को मजबूत करते हैं। इसकी चकाचौंध के आगे कोई भी नकारात्मक आंकडा और खबर दबाई जा सकती है और साथ ही वह दर्द भी जो 75 करोड भारतीयों का है। इनके अलावा इसी देश में 12 करोड वे इंडियन भी रहते हैं जिनके सपने भी आम हिंदुस्तानी की जान से ज्यादा कीमती हैं। जो हर वक्त आसमान में रहता है और जिसकी जेब में इस देश की खुशहाली और भविष्य की योजनाओं की चाबी है।

इसे एक उदाहरण के साथ साफ करते हैं। आज ही हम न्यूज रूम में सपनों पर बात कर रहे थे। एक साथी ने कहा कि ओबामा, बिल क्लिंटन के समय में देखे गये सपने में रंग भर गये। यह खबर है। लेकिन इससे बड़ी खबर यह है कि हमारे देश के 35 करोड़ लोगों के लिए दिन में एक बार अच्छा भोजन करना भी सपना है। हम किस पक्ष में खड़े होना चाहते हैं, यह हमें ही तय करना है। किसके सपने को खबर बनाना चाहते हैं। ओबामा के दुनिया जीतने के सपने को, पबों और मॉल में ब्लैकबेरी फोन के खरीदारों को या देहात में रोजाना दुश्वारियों से दो-चार होते लोगों को या उस शख्स को जो फुटपाथ पर लेटा हिंदुस्तान की दूसरी तस्वीर दिखा रहा है?

फैसला करना ज्यादा मुश्किल कभी नहीं रहा।