एक अधूरी रिहर्सल के साथ

पिछली एक मई से 25 मई के बीच अशोकनगर, मध्यप्रदेश में भारतीय जन नाट्य संघ का बाल शिविर लगा था। यह सातवां बाल शिविर था, जो अशोकनगर इप्टा की सक्रियता का अपना अनूठा सुबूत है। चार दिन के लिए मैं भी उन बच्चों के साथ था। इस दौरान बच्चों के साथ एक 20 पन्नों का अखबार भी निकाला जिसकी जेपीजी फाइल उपलब्ध हैं।
करीब 11 साल पहले अशोकनगर से बाहर निकला था, तो पता नहीं था कि फिर कब लौटूंगा। कई शहरों की धूल फांकने, कई जिंदगियों में झांकने और कई-कई सड़कों से गुजरने के बाद आज भी वह ‘लौटना’ संभव नहीं हो सका है। इस बीच कितनी ही दफा अशोकनगर आया। उस जमीन पर जहां से विचार निर्माण की प्रक्रिया सीखी। बीते साल अखबारी ऊब मिटाने के लिए जब कुछ दिनों के लिए झारखंड चला गया था, वहीं हरिओम भाई का फोन आया और शिविर के बारे में बताया। सुझाव दिया कि क्यों न बच्चों से एक अखबार तैयार कराया जाए। इस सुझाव में स्वार्थ ज्यादा था, उन बच्चों से मिलने का जिनमें में अपना एक दशक पहले का चेहरा देखता हूं। दो दिन शिविर में वक्त बिताया और नतीजतन आठ खूबसूरत पन्ने हाथ में थे। निजी जीवन में झूठ खूब बोलता हूं, पर सच बता रहा हूं कि अपने दशक भर लंबे पत्रकारीय जीवन में खबरें एडिट करते हुए और पेज को फाइनल प्रिंट में भेजते हुए कभी इतनी खुशी नहीं मिली, जितनी उन आठ पन्नों ने दी। अखबारी शक्ल के ये पन्ने इस लिहाज से भी खास थे, कि यह पहली बार था, जब मैं किसी धन्ना सेठ के लिए काम नहीं कर रहा था। वगरना, खबरों की कांट-छांट के दौरान हर वक्त संपादकीय नीति की दुहाई उस रचनात्मकता के आड़े आती ही है, जिसमें मेरे बेहद करीबी वरिष्ठ साथियों हरिओम, पंकज दीक्षित, डॉ अर्चना, रतन गुरु, सीमा भाभी, विनोद शर्मा और यकीनन मनीष, दुर्गेश और नीलेश का पहला और बड़ा हिस्सा है।
अशोकनगर इप्टा के पहले बाल शिविर में मैंने एक शिविरार्थी और इप्टा के सदस्य के तौर पर हिस्सेदारी की थी। वह बेहद खुशनुमा दिन थे। पहले बाल शिविर की यादें जब तब घेरती हैं, तो कई बातों से नाइत्तेफाकी रखते हुए भी लगता है कि थियेटर का मेरे, हमारे, उन सबके जो तब साथ थे, के बनने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। जिंदगी के दीगर कामों में उलझते हुए पता ही नहीं चलता कि बाल शिविर के दौरान पड़े बीज कैसे झुरमुट की शक्ल ले चुके हैं और अब वे जिंदगी की दिशा भी तय कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि अखबारी दुनिया में जो कुछ किया है उसके पीछे बड़ा हाथ थियेटर के उन महत्वपूर्ण सालों का ही है, जो इप्टा और फिर बाद में दस्तक और जन संस्कृति मंच के साथ गुजारे। असल में बाकी कलाएं, जिस तरह अकेले संभव हैं, वैसे नाटक नहीं किया जा सकता और जिंदगी जीने के लिए भी जरूरी है कि आप समाज से सामन्जस्य बैठाएं। नाटक के मंच पर उतरने से पहले संवादों की रिहर्सल और फिर मंच पर अचानक बदली परिस्थितियों के बीच नाटक को संभालना, जिंदगी को आसान कर देता है। जिंदगी की रिहर्सल नहीं होती, लेकिन एक अनुमान लगाया जा सकता है और वह नाटक के सू़त्रों से मेल खाता है। कई बार लगता है कि सधे हुए काम हमें इसी तरह आकर्षित करते हैं, जैसे एक एररलैस नाट्य प्रस्तुति।
नाटक करना मुझे कभी नहीं आया। आसपास के लोग बताते हैं कि तुमने अपनी अभिनय क्षमताओं को अखबार में ढाल दिया है। यह सही भी लगता है। बच्चों के साथ जब अखबार का काम कर रहा था, तो लगता था, अब मुझे संपादक की तरह अभिनय करके इन्हें समझाना होगा कि न्यूज रूम में कैसा माहौल होता है। लेकिन वह माहौल क्रियेट करना संभव नहीं। अखबारी उलझनों के बरअक्स यहां बच्चों की हंसी है, खबरों के लिए दौड़ते दिमागों के बजाए यहां खेल-खेल में खबरें बुनते नन्हें हाथ हैं और साथ ही है वह भरपूर खुलापन जो जिंदगी को खूबसूरत बनाता है।
इस अखबार को बनाते, संवारते, निकालते हुए बच्चों से जो कुछ सीखा है, वह उस सीखे हुए से कई गुणा ज्यादा है, जो न्यूज रूम के अंधेरे में अब तक सीखता रहा हूं। मुझे महसूस होता है कि यहां जो ऊर्जा हासिल की है, उससे अगले एक साल तक तो जिंदगी रोशन रहेगी ही, जब अंधेरा घिरने लगेगा, तो अगला शिविर सामने होगा।
यहां उन पन्नों की जेपीजी फाइल उपलब्ध हैं, जिन्हें बच्चों ने तीन दिन की मेहनत में तैयार किया है।