पूंजी के मकड़जाल में गरीब

ताजा खबर के अनुसार, योजना आयोग ने गरीबी की हालिया परिभाषा पर उठे बवाल के बाद अपना पल्ला झाड़ लिया है। योजना आयोग ने मंगलवार को इसे हलफनामे तक सीमित कर किसी भी योजना में तेंदुलकर कमेटी के आंकड़ों को तरजीह देने की बात कही है। यह हाल के दौर में कांग्रेसी रणनीति के शातिर विकल्पों का एक और उदाहरण साबित हुआ। मामला पेचीदा होने पर किसी के सिर पर हांड़ी फोड़ने की कांग्रेसी तरकीब फिर कारगर साबित हुई और इसी के साथ गरीबी पर बहस का एक छोटा, किंतु सार्थक दौर भी खात्मे के कगार पर है। हालांकि गरीबी रेखा की ताजा सीमारेखा पर 2जी स्पेक्ट्रम और बीजेपी की आंतरिक खींचतान की वजह से भारतीय मध्यवर्ग और सत्ता का ध्यान बहुत ज्यादा वैसे भी नहीं जाना था, वरना संभव था कि यह बहस आगे बढ़ती। योजना आयोग की ओर से हलफनामे में दिए गए आंकड़े सार्वजनिक होने के साथ ही इनका विरोध शुरू हो गया था, और यह बड़े संदर्भों में देखने की शुरुआत होने से पहले ही खत्म होना, या किया जाना, दुखद है। गरीबी की सीमा रेखा लंबे समय से अपने तयशुदा नियमों को बदलने की मांग करती रही है, जो हर बारन्यूनतम जीवन राशिपर आकर दम तोड़ देती है। दिक्कत यहीं से शुरू होती है। असल में हम ठेठ पूंजीवादी भारत की ओर बढ़ रहे हैं और अपनी नीतियों को नेहरू के समाजवादी मॉडल की रोशनी में बनाते-बिगाड़ते हैं।
आर्थिक उदारीकरण के दोनों सबसे बड़े देसी समर्थक, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (जो योजना आयोग के अध्यक्ष भी हैं) और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अच्छी तरह जानते हैं कि गरीबी को दूसरी तरफ से देखने की कोशिश में भारतीय जनता की खुशहाली का भ्रम बनाए रखना कठिन होगा। इसीलिए वे गरीब की परिभाषा तय करते हैं, लेकिन असल में अगर वे पूंजीवादी निजाम लाना चाहते हैं, तो उन्हें अमीर की परिभाषा तय करनी चाहिए। आखिर देश की जनता को क्यों नहीं बताया जाना चाहिए कि वे कौन और कितने लोग हैं, जो साल भर में 1.47 करोड़ लीटर शराब पी जाते हैं और जो 2008 में 800 करोड़ रुपये के शराब बाजार को 2013 में 2700 करोड़ तक पहुंचा देंगे। महंगाई के साथ गरीबी का बढ़ना और गैरजरूरी चीजों के बाजार का विशालतम होना भारतीय उदारीकरण का संपूर्ण दृश्य है। शराब का उदाहरण इसलिए, क्योंकि कुतर्क की तरह यह सवाल भी हवा में फेंका जाता है कि भारतीय गरीब अपने हालात के लिए खुद जिम्मेदार है और वह अपनी कमाई को शराब में गर्क कर देता है, जिसकी अलग से समाजशास्त्रीय पड़ताल होनी चाहिए।

असल में सच दूसरा है। एसौचेम के मुताबिक, भारत में शराब की 90 प्रतिशत खपत मुंबई (30 प्रतिशत), दिल्ली (20 प्रतिशत), गोवा (20 प्रतिशत), बंगलूरू (15 प्रतिशत) और पंजाब (5 प्रतिशत) में होती है। ध्यान दीजिए कि यह सारे इलाके सबसे ज्यादा टैक्स जमा करने वालों में भी शुमार होते हैं। 2013 में जब भारत, रूस को पीछे धकेलकर शराब का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन जाएगा, ठीक उसी समय भारत में भूखे लोगों की तादाद भी दुनिया के किसी भी मुल्क से ज्यादा होगी। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि भारत उस विशाल परिवार की तरह होगा, जिसके एक ‘कमरे’ में करोड़ों लोग भूखे होंगे, तो ठीक उन्हीं के करीब कानफोडू संगीत की धुन पर चंद लाख लोग शराब के नशे में अपना भौंडापन सार्वजनिक कर रहे होंगे।

योजना आयोग ज्यादातर मौकों पर आंकड़ों के सहारे तसल्ली देने की कोशिश करता है। इस बहाने कुछ अन्य दिलचस्प आंकड़ों पर भी नजर डालनी चाहिए। ‘नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकॉनामिक्स रिसर्च’ के अनुसार, भारत में 7500 रुपये से कम मासिक आय वाले लोग 72 प्रतिशत हैं, जिन्हें हम गरीब कह सकते हैं। इसी तरह 7500 से 17000 रुपये की मासिक आय वाले लोगों की संख्या 22 प्रतिशत है, जो निम्न वर्ग की श्रेणी में आते हैं। जिस भारतीय मध्यवर्ग के नाम पर चौतरफा हल्ला मचा रहता है, और जिसे नए भारत के साथ हालिया भारत की भी पूरी तस्वीर के तौर पर रेखांकित किया जाता है, उस 17000 से 85000 की मासिक आय वाले मध्यवर्ग का आकार महज 5 प्रतिशत है। बाकी बचा एक प्रतिशत भारतीय रूलिंग क्लॉस, बिजनेस घरानों और अमीरों का भारत है। भारतीय समाज के एक हिस्से को देखने से गलत निष्कर्ष निकलना लाजिमी है। इसलिए गरीबी की बात होने पर अमीरी के आंकड़ों को भी पूरी मुस्तैदी के साथ देखा जाना चाहिए।

इसी के बरअक्स देखना दिलचस्प होगा कि विश्व की प्रमुख कंसल्टिंग फर्म मैकिन्से ने बीते साल भारतीय समाज के मध्यवर्ग और गरीबी के विस्तार के क्या अनुमान लगाए थे। मैकिन्से के अनुसार, भारत में 2005 में मध्यवर्ग पांच प्रतिशत था, जो 2015 में 20 और 2025 में बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाएगा। वहीं भारतीय निम्न वर्ग 2005 में 40 प्रतिशत था, जो 2015 में बढ़कर 45 प्रतिशत हो जाएगा, जबकि 2025 में इसमें कमी आएगी और यह 35 प्रतिशत पर पहुंच जाएगा। गरीबों की संख्या के अनुमानों पर मैकिन्से का कहना है कि यह 2005 के 55 प्रतिशत से कम होकर 2015 में 35 प्रतिशत हो जाएंगे, जबकि 2025 में 20 प्रतिशत होंगे। प्रतिशत रूप में गरीबी में कमी के आसार हैं, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि 2025 में भारतीय जनसंख्या भी बढ़कर 145 करोड़ तक पहुंचने की आशंका है, जिसका 20 प्रतिशत 29 करोड़ होता है। भविष्य की ताकत बनने वाले देश में 29 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करेंगे, तो हकीकत से आंख चुराना धोखा होगा।

साफ है कि भारत में गरीबी के हालात बहुत तेजी से नहीं बदल रहे हैं। गति के लिए खाली मैदान चाहिए होता है। पूरे भारत की कल्पना बड़े मैदान से करें, तो गरीब और निम्न वर्ग के हिस्से में भीड़ ज्यादा है, और तकलीफ यहीं से शुरू होती है। ज्यादा लोगों के एक साथ आगे बढ़ने में परेशानी होगी। यही वजह है कि बीते छह दशकों में भारतीय अमीर तरक्की की राह पर सरपट दौड़ा है और साथ ही उच्च मध्यवर्ग ने कमोबेश रफ्तार हासिल कर ली है। वहीं गरीब और निम्न मध्यवर्ग आज भी गलीज शर्तों पर उम्र गुजार रहे हैं। मुश्किलों में फंसे गृहमंत्री पी चिदंबरम ने अमीरों से ज्यादा टैक्स की वकालत की है। भले ही यह अंतर्राष्ट्रीय मंदी के मद्देनजर हो, लेकिन फिलहाल सार्थक कदम होगा, जिसे जल्द उठाना चाहिए। यह पूंजीवाद के पैरोकारों के लिए भी तार्किक है। आखिर नई सदी की शुरुआत में झटके खाते पूंजीवाद को दुआ की जरूरत है, जो बीमार पूंजीवाद की उम्र में 20-30 साल का इजाफा कर सकती है। आखिरकार तो पूंजीवादी विचारक भी मानते ही हैं कि दुनिया के किसी भी हिस्से की गरीबी पूंजीवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

(पांच अक्टूबर 2011 को जनवाणी में प्रकाशित)