कम्यूनिज्म गॉन विद कॉमरेड स्तालिन

एक इंसान पैदा होने और मौत के आगोश में जाने से पहले अपने आसपास के लोगों पर प्रभाव डालता है। अच्छा-बुरा, कम या ज्यादा। कुछ लोग वक्त की सरहद को लांघकर लंबे समय तक लोगों के दिलों में बसे रहते हैं, तो कुछ चुभते रहते हैं, एक कड़वी याद की तरह, सदियों तक। पसंद-नापसंद के तराजू में हर शख्सियत होती है, और राजनेता कुछ ज्यादा ही। बात तब और पेचीदा हो जाती है, जब हम ऐसे लीडर की बात करें, जिसने अपने समय में दुनिया पर ऐसा असर डाला हो, कि उसके बाद दुनिया की राजनीति समकोण बनाती हुई घूम गई हो। ऐसे नेता उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। जॉर्जिया के गोरी कस्बे के एक छोटे से गंदे मोहल्ले में 18 दिसंबर 1879 को जन्मे सर्वहारा के महान नेता जोसेफ विसारियोनोविच जुगाश्वेलो उर्फ जोसेफ स्तालिन उनमें से एक हैं। स्तालिन के बचपन पर नजर डालने पर पता चलता है कि इंसान जो बनता है, उसकी बुनियाद में वे घटनाएं शामिल होती हैं, जिनसे होकर वह गुजरा होता है। स्तालिन के पिता मोची थे, जो बाद में जूता कारखाने में मजदूर हो गए। उनकी मां जमींदारों के गुलाम भू-दासों की बेटी थीं। ऐसे मां-बाप की संतान को कम्युनिस्ट ही होना था, और वे हुए भी। स्कूली जीवन में कविताएं लिखने वाले नन्हें स्तालिन और 1896 में क्रांतिकारी प्रवृत्ति के कारण कॉलेज से निकाले गए स्तालिन के बीच एक कम्युनिस्ट नेता के बीज दिखाई पड़ते हैं। अपनी उम्र के पहले चार साल स्तालिन ने जिस दो कोठरियों वाले मकान में गुजारे थे, उसे जॉर्जिया की सोवियत सरकार ने संग्रहालय के तौर पर संरक्षित कर दिया है। इस संग्रहालय रूपी मकान में पुरानी खटिया, काठ की बेंच, कुर्सी, अलमारीनुमा संदूक और जुगाश्वेलो परिवार की किताबों के साथ स्तालिन के स्कूल की हस्तलिखित पत्रिका की प्रति भी है, जिसमें उनकी कविताएं छपी थीं। साथ ही अतिरिक्त योग्यता से परीक्षाएं पास करने वाले प्रमाण पत्रों के साथ स्कूल इंस्पेक्टर की वह रिपोर्ट भी मौजूद है, जिसमें धार्मिक व्याख्यानों के प्रति स्तालिन की उपेक्षा की शिकायत की गई है। ये तथ्य साहित्य और संगीत में रुचि रखने वाले किशोर स्तालिन के कॉमरेड स्तालिन बनने की कहानी के शुरुआती दिनों की तस्वीर सामने लाते हैं।
पादरी बनने के लिए धार्मिक पढ़ाई करने के दौरान ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए थे। बाद में 1896 में क्रांतिकारी दल बनाने से 1917 तक स्तालिन का जीवन गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन, जेल एवं देश निकाले की कहानी रही। स्तालिन ने जॉर्जिया की राजधानी तिफलिस (बिलीसी) में दो हजार मजदूरों का प्रदर्शन कराया था, जिस पर लेनिन ने ‘इस्क्रा’ के 1902 के अंक में लिखा कि इस प्रदर्शन को राजनीतिक संघर्ष और मजदूर आंदोलन के समन्वय का पहला कदम समझा जाना चाहिए। लेनिन से उनकी मुलाकात इसके बाद 1905 में फिनलैंड में हुई। तब से लेनिन की मृत्यु तक स्तालिन उनके साथ रहे।
पार्टी से शुरुआती जुड़ाव के वक्त ही स्तालिन ने जान लिया था कि क्रांति के मुख्य सैद्धांतिक नेता लेनिन ही हैं। वे पार्टी के भीतर चलने वाले वैचारिक संघर्षों में हमेशा पूरी मजबूती के साथ लेनिन के पक्ष में खड़े रहे। 1912 में उन्हें केंद्रीय कमेटी में चुना गया। फरवरी 1917 में जारशाही के पतन के बाद रूस की ज्यादातर पार्टियों ने यह भ्रम फैलाया कि रूसी सर्वहारा कमजोर और पिछड़ा हुआ है और वह सत्ता नहीं संभाल सकता। बोल्शेविकों के भीतर ये विचार घुसपैठ कर गए थे। तब स्तालिन कैद में थे। मार्च में वे कैद से छूटकर केंद्रीय कमेटी के निर्देश पर सेंट पीटर्सबर्ग पहुंचे, तो पार्टी के तीखे आंतरिक संघर्ष से साबका पड़ा। उन्होंने लेनिन का पक्ष लिया कि मजदूर वर्ग को तत्काल समाजवादी क्रांति की तैयारी शुरू करनी चाहिए। इस दौरान स्तालिन क्रांतिकारी अखबार ‘प्रावदा’ का काम देख रहे थे। अक्टूबर क्रांति के बाद चले लंबे गृहयुद्ध के दौरान स्तालिन एक कुशल योजनाकार सैन्य नेता के रूप में उभरे। इस समय त्रात्स्की लाल सेना के प्रमुख थे, वह तकनीक पर ज्यादा यकीन करते थे। नतीजतन लाल सेना को कई निश्चित जीतों में भी हार का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर स्तालिन मजदूरों और किसानों के नजरिये से सैन्य स्थिति समझते थे। 1919 में स्तालिन को वोल्गा नदी के किनारे बसे जारित्सिन के मोर्चे पर रसद आपूर्ति की जिम्मेदारी दी गई। यहां स्तालिन ने त्रात्स्की को किनारे कर कमान अपने हाथों में ली और पार्टी के कई प्रतिक्रांतिकारियों को बाहर किया और फिर क्षेत्र को आजाद कराया। नाराज त्रात्स्की ने स्तालिन को वापस बुलाने की मांग की, लेकिन पार्टी ने स्तालिन को गृहयुद्ध के हर अहम मोर्चे पर भेजा। हर जगह स्तालिन ने क्रांतिकारी जनता का सम्मान अर्जित किया और कठिनतम परिस्थितियों में भी जीत हासिल कर नेतृत्व क्षमता का लौहा मनवाया। गृहयुद्ध के खात्मे तक स्तालिन एक ऐसे नेता के रूप में पहचान बना चुके थे, जिसे पता था कि काम कैसे किया जाता है। 3 अप्रैल 1922 को स्तालिन को कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी का महासचिव बनाया गया।
लेनिन की मौत के बाद समाजवाद पर पार्टी में तीखा संघर्ष उभरा। एक तरफ त्रात्स्की और उसके समर्थक थे, जिनका मानना था कि सर्वहारा अकेले सोवियत संघ में टिका नहीं रह सकेगा और वे यूरोप के सर्वहारा वर्ग के खड़े होने पर उम्मीद लगा रहे थे। वहीं स्तालिन का मानना था कि शोषित-उत्पीड़ित किसानों की भारी आबादी क्रांति में रूसी सर्वहारा का साथ देगी और सोवियत जनता अपने बूते पर समाजवाद के निर्माण में सक्षम है। इतिहास ने साबित किया कि स्तालिन सही थे।
असल में सोवियत संघ के जिस वैकल्पिक मॉडल के उदाहरण को हम याद करते हैं, उसका ख्वाब भले ही लेनिन ने देखा हो, लेकिन पूंजीवादी दुनिया की हर चाल, हमले, साजिश और दुष्प्रचार को झेलते हुए साम्यवादी मॉडल को 70 साल तक जिंदा रखने का श्रेय स्तालिन को ही जाता है। अपने नाम के अनुसार फौलादी इरादों वाले मेहनतकश के इस नेता ने साबित किया कि विकल्प हमेशा जिंदा रहते हैं। स्तालिन पर पूंजीवादी लांछनों की कीचड़ जितनी उछाली गई है, उतनी दुनिया के किसी और नेता पर नहीं फेंकी गई। इसके बावजूद स्तालिन आज भी रूस समेत पूरी दुनिया में आदर के साथ याद किए जाते हैं। हिटलर से उनकी तुलना करने वाले भूल जाते हैं कि स्तालिन ने कभी संपत्ति अर्जित नहीं की और जीवन भर अपने निजी काम खुद ही करते रहे, जिसमें अपनी पोशाक धोने का काम भी शामिल था। साथ ही वे नियमित रूप से खेतों में काम करते थे।
साइबेरिया से स्तालिन का गहरा रिश्ता है। इसी साइबेरिया के कारण उन्हें दुनिया के कठोरतम तानाशाहों में शुमार किया जाता है। आलोचक उन्हें लाखों लोगों की मौत का जिम्मेदार मानते हैं, जिन्हें स्तालिन ने साइबेरिया में ‘निर्वासित’ किया था। हालांकि स्तालिन ने इसके जवाब में कहा है कि उनके लिए कुछ लाख लोगों की ठंड से बड़ी चीज थी, साढ़े 15 करोड़ आवाम की नए सपनों में रंग भरना। स्तालिन पूरी उम्र इंसानी जिंदगी में अपनी तरह से रंग भरते रहे। दुनिया को फासीवाद के खतरे से बचाने के लिए भी स्तालिन ने साइबेरिया का ही सहारा लिया। जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर की फौजें यूरोप को पार करते हुए सोवियत की ओर बढ़ रही थीं, तो स्तालिन ने चतुर सैन्य कमांडर की वह भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें आनेवाले सालों में याद किया जाना था। स्तालिन ने जर्मन सैनिकों को साइबेरिया तक घुस आने दिया, और इंतजार किया बर्फ पड़ने का, क्योंकि बर्फ गिरने पर होने वाली ठंडक को रूसी सेना ही सहन कर सकती थी। इसी ठंड में तीन तरफ से घेरकर स्तालिन ने जर्मन सेना को हराया, जिसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर और फासीवाद का आतंक खत्म हुआ। हालांकि इस लड़ाई की रूस ने बड़ी कीमत चुकाई, जो देश को कई दशक पीछे धकेलने के लिए काफी थी, लेकिन चंद सालों में स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत जनता फिर अगली कतार में शामिल हो गई। पांच साल के भीतर ही देश से भुखमरी और अशिक्षा पूरी तरह खत्म हो चुके थे। खेती का सामूहिकीकरण हो चुका था और पैदावार कई गुना बढ़ गई थी। सभी नागरिकों को नि:शुल्क बेहतरीन चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी। हर स्तर पर शिक्षा मुफ्त थी। उस समय के कुछ और तथ्य स्तालिन को महान नेता साबित करते हैं। स्तालिन के वक्त में सोवियत संघ में दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा किताबें छपती थीं। साथ ही बेरोजगारी, महंगाई, वेश्यावृत्ति, नशाखोरी का तो 30 के दशक तक ही सफाया हो चुका था। दुनिया में पहली बार महिलाओं को चूल्हे-चौके से मुक्ति मिली थी। अपने करिश्माई नेतृत्व और कठोर इरादों के बावजूद स्तालिन एक इंसान थे और कुछ सैद्धांतिक चूकों और परिस्थितियों के दबाव में हुई गलतियों का फायदा उठाकर पार्टी पर स्तालिन की मौत के बाद गलत लोग काबिज हो गए। उन्होंने इतिहास की उस धार को कुंद कर दिया, जो बारीक हर्फों में मेहनतकश आवाम की बेहतरी का ककहरा लिख रही थी।
स्तालिन अपने जीवन में जितने सहज थे, उनकी मौत उतनी ही असहज थी। स्तालिन की मौत दुनिया की अनसुलझी गुत्थियों में शुमार की जाती है। 28 फरवरी 1953 को ख्रुश्चेव और एनकेवीडी (गुप्त पुलिस) के मुखिया बेरिया शाम चार बजे स्तालिन को छोड़कर गए थे। अगली सुबह यानी 1 मार्च को सुबह 10 बजे तक उनके कमरे का दरवाजा नहीं खुला है, तो गार्ड बेचैन हो गए। रात 10 बजे तक इसका इंतजार किया गया कि यह 74 वर्षीय कॉमरेड अपनी धमक भरी आवाज में पुकारेगा। जब ऐसा नहीं हुआ तो कमरा खोला गया। स्तालिन फर्श पर पड़े थे- अपने ही पेशाब में लथपथ। उनकी टूटी घड़ी में 6 बजकर 30 मिनिट का समय हुआ था। इस पर भी पूरी रात उन्हें उसी कमरे में रखा गया। अगली सुबह 7 बजे से 10 बजे के बीच स्तालिन को चिकित्सा मुहैया कराई जाती है। पक्षाघात के कारण उन्हें सांस लेने में तकलीफ हो रही थी और वे खून की उल्टियां कर रहे थे। जेल में बंद स्तालिन के पुराने डॉक्टर से इलाज के बारे में पूछा गया। बताया जाता है कि उस डॉक्टर ने गलत इलाज बताया और 5 मार्च 1953 को 9:50 बजे स्तालिन मृत घोषित कर दिए गए।
इस कम्यूनिस्ट लीडर की मौत का असर कितना व्यापक था। इसका अंदाजा एक काल्पनिक पात्र के जरिए लगाया जा सकता है। फणीश्वर नाथ रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास ‘परती परिकथा’ में एक प्रसंग आता है। यह प्रसंग है मनमोहन बाबू के कम्यूनिज्म से दूर होने का। रेणु लिखते हैं, स्तालिन की मौत ने मनमोहन बाबू के मन को मार दिया था। उन्होंने पार्टी प्रोग्रामों में दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। जिले और प्रांत के कॉमरेडों ने समझाया तो बोले- नहीं कॉमरेड, नहीं! अब कम्यूनिज्म की बातें फिजूल हैं। कम्यूनिज्म गॉन विद कॉमरेड स्तालिन
(स्तालिन की जन्मतिथि के संदर्भ में विरोधाभास है। जन्म स्थान गोरी के दस्तावेजों में उनकी जन्म तारीख 18 दिसंबर 1878 बताई है, जो ग्रिगोरियन कैलेंडर के मुताबिक पुराने तरीके में 6 दिसंबर दर्ज है। 1921 में खुद स्तालिन ने अपने परिचय में जन्म तारीख 18 दिसंबर 1878 दर्ज की। हालांकि 1922 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने इसे बदलकर 21 दिसंबर 1979 किया। सर्वमान्य रूप से 18 दिसंबर ही स्तालिन की जन्म तारीख मानी जाती है।)
संदर्भ सूची
1. डायलेक्टिकल एंड हिस्टोरिकल मैटीरियलिज्म
2. मार्क्सिज्म एंड प्रॉब्लम्स आॅफ लिंगुस्टिक्स- लेखक जोसेफ स्तालिन
3. जोसेफ स्तालिन- ले. जैफ्री जुल्के
4. माई डियर मिस्टर स्तालिन : द कम्पलीट कॉरस्पोंडेंस बटवीन फ्रेंकलिन द रूजवेल्ट एंड जोसेफ स्तालिन
5. डायलेक्टिकल एंड हिस्टोरिकल मटेरियलिज्म- ले. जोसेफ स्तालिन
6. कन्वर्सेशन विद स्तालिन- ले. मिलोवन दाजिलास
7. फाउंडेशन आॅफ लेनिनिज्म- ले. जोसेफ स्तालिन
8. मार्क्सिज्म वर्सेज लिब्रलिज्म: एन इंटरव्यू- ले हर्बर्ट जॉर्ज वेल्स
9. यशपाल रचनावली खंड 13

(18 दिसंबर 2011 को जनवाणी में प्रकाशित)