मौतकईलोगोंकेलिएएकसूचनाभरहोतीहै. तिलतिलकरमरते, हररोजजीनेकीजद्दोजहदमेंमशगूललोगोंकेलिएयहअंतभीहै. फिरभीयहदुखसेभरजातीहै. क्योंकि मौत के साथ सपना देखने वाली आंखें भी बुझ जाती हैं. कुलदीपनारायणमंजरवेजीकेनरहनेकादुखभीइन्हीबहुतसेदुखोंकेबीचसेझांकताएकबडाऔरसहमाहुआसचहै. अबउनकेहाथकुछनहींरचेंगे. उनकीमौतकीसूचनानिरालानेदी. कुलदीपजीकीमौतसेविचलितनिरालानेअपनादुखकागजसेकहाऔरमेलकरदिया. मैंकुलदीपजीसेकभीनहींमिला. बातचीतमेंकईबारजिक्रआया, लेकिनवहअनायासचलेआनेवालेनामोंकेक्रमकाहिस्साहीरहा. अफसोसमैंइसशख्सियतकेकभीरूबरूनहींहोसका. जिनसेकलाकोगढा, जीवनकोभी.
मुझे गाजे-बाजे के साथ विदा करना, लगे कि कलाकार का जनाजा है, ऐरे-गैरे का नहीं...
निराला तिवारी वह रविवार 31 मई की शाम थी. महीने का आखिरी दिन. मन यूं ही इधर-उधर भटक रहा था. लेकिन नहीं पता था कि यह मेरे आत्मीय और समाज-दुनिया से उपेक्षित एक महान कलाकार के जीवन का भी आखिरी दिन था. शाम को एक अजीज मित्र को मैसेज भेजा- आई वांट टू लीव फुल्ली, सो आई कैन डाई हैप्पी... इज इट पॉसिबल फॉर एनी वन डियर...? अभी यह मैसेज भेज कर मित्र से मिलने वाले जवाब की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि रात नौ बजे के करीब एक अपरिचित नंबर से फोन आया. फिर जो पता चला- उसमें खुशी तो थी लेकिन गम और दुखों के पंख पर सवार होकर आयी थी. फोन कुलदीप नारायण मंजरवे के पुत्र बिनू ने किया था. यह बताने को कि पिताजी गुजर गये. खबर सुन कर मैं सकते में तो नहीं आया लेकिन लेकिन खुद को गुनाहगार और शर्मसार जरूर महसूस करने लगा. लगा मैं कोई जुर्म कर बैठा हूं. उनके जीते-जी उनकी उस डायरी को किताब की शक्ल में नहीं छपवा सका, जिसके लिए वे पिछले कई दिनों से बार-बार कह रहे थे. मुझे उनकी मृत्यु का दुख इसलिए ज्यादा नहीं हुआ, क्योंकि दो दिन पहले ही मैं उनसे मिलने उनके घर गया था. करीब दो घंटे तक उनके साथ रहा था... कुलदीप तब जी भर के दुआएं दे रहे थे मुझे और साथ ही रो भी रहे थे, इस कामना के साथ कि अब गुजर ही जाऊं तो बेहतर...! मंजरवे को हार्ट की शिकायत थी. वे सीने की दर्द से तकलीफ महसूस कर रहे थे लेकिन उस दर्द से भी ज्यादा कई तकलीफें जिंदगी की आखिरी बेला में उन्हें घुटन दे रही थीं. 83 वर्ष के मंजरवे के बारे में संक्षिप्त जानकारी यह है कि वे शिल्पकार थे. पटना आर्ट कॉलेज के छात्र रह चुके थे. पेपरमैसी आर्ट के मास्टर थे. रांची के कोकर इलाके में पिछले 40 साल से एक कमरे में वह और उनका पूरा परिवार रहता था. उस एक कमरे को मकान, दुकान, कारीगरी का कारखाना... कुछ भी कह सकते हैं. मूर्तियों के ढेर के बीच तीन बिस्तर पर 12 सदस्यीय परिवार का आशियाना. एक बेड पर चादर से परदेदारी कर बेटा-बहू, तो उसके बगल वाले बिस्तर पर बच्चे और ईंट को सजाकर लकडी के पट्टे से बनाये गये एक पलंग पर मंजरवे सोते-बैठते... मंजरवे बिहार के जमुई जिला के चांदन गांव में पैदा हुए. कला की सनक स्कूली जीवन से इस तरह सवार हुई कि उसकी कीमत पर किसी चीज से समझौता करने को तैयार नहीं. पटना आर्ट स्कूल से पढाई पूरी करने के बाद इन्हें देवघर विद्यापीठ में नौकरी मिली. वहां मन उचटा तो झारखंड के ही सरायकेला-खरसावां में सरकारी नौकरी करने चले आये. लेकिन कलाकार मन को न चाकरी रास आ रही थी न नया शहर. सो आखिर में शिल्प कला केंद्र का एक बोर्ड लगाकर एक शेड के नीचे कला सृजन में लग गये. यह 1973 की बात है, जब उन्होंने शिल्प कला केंद्र की स्थापना की. तब से न जाने कला, कलाकारी और कलाबाजी की दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी, मगर मंजरवे वहीं के वहीं रह गये. अपनी सादगी और सच्चाई के साथ. अपनी धुन में इतने मगन रहे कि उन्हें कभी शिल्प कला केंद्र को रजिस्टर्ड संस्था बनाने ख्याल भी नहीं आया. मंजरवे को गांधी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण आदि का सान्निध्य मिल चुका था. असहयोग आंदोलन के दिनों में जब बंगाल से कुछ लडकियां पटना पहुंचीं तो उन्हें चरखा प्रशिक्षण का जिम्मा गांधीजी ने मंजरवे को ही सौंपा था. आजादी की लडाई के दिनों में नाटक खेले जाते थे तो उसमें मेकअप मैन के रूप में मंजरवे होते, ये नाटक पटना व आसपास के इलाके में काफी चर्चित हुए थे. डॉ राजेंद्र प्रसाद इनकी कला के कद्रदानों में से थे और विनोबा, जयप्रकाश भी कहते- मंजरवे, तुम्हारे जैसे साधक की ही जरूरत है. मंजरवे ने भारत छोडो आंदोलन के दौरान पटना से लेकर बाढ तक के इलाके में गांव-गांव में पैदल जाकर लोगों को जागरुक किया था. मंजरवे साधक ही बने रहे. जब तक जवानी रही तब तक अपने ही हाथों से बना कपडा पहनते रहे. लेकिन इन सबसे वैसा कुछ भी नहीं हो सका, जिसकी दरकार उन्हें थी. न मुफलिसी दूर हो सकी, न उपेक्षा. लेकिन उम्मीदें थीं कि टूटती नहीं थीं, आखिरी वक़्त तक. मंजरवे के उस टूटे हुए मकान में कई मूर्तियां बनी हुई मिलेंगी. इन मूर्तियों का निर्माण मंजरवे से किसी नेता या स्वयंसेवी संस्था ने करवाया था... बेचारे मंजरवे, दिन-रात एक कर, अपना पैसा लगा कर इन मूर्तियों का निर्माण करते रहे, लेकिन उन्हें ले जाने वाला अब तक यानी दस वर्षों बाद तक कोई नहीं आया. सरकारी विभागों ने तो न जाने कितनी बार छला. एक दफा ग्रामीण विकास विभाग ने उनकी बनायी कलाकारी को यह कह कर ले लिया कि वे उसे राष्ट्रीय सम्मान के लिए भेजेंगे. मंजरवे ने उसे दिया. बाद में राष्ट्रीय सम्मान की बात कौन करे, वह कलाकृति भी कौन हजम कर गया, आखिरी दिनों तक पता नहीं चल सका. इस बार भी कुछ वैसा ही हुआ. मंजरवे को किसी सरकारी बाबू ने बता दिया कि आपका नाम तो इस बार राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए गया है. आप तैयार रहियेगा. जिस दिन यह पता चला, उसी दिन से मंजरवे कभी आधी रात को जग कर तो कभी भरी दुपहरिया में एक नयी कृति के निर्माण में लग गये. शरीर साथ नहीं देता था, फिर भी वे लगे रहते... उस कृति का निर्माण उन्होंने राष्ट्रपति को देने के लिए किया. वे बताते थे कि जब सारे कलाकार राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचेंगे तो वे सम्मान लेकर आ जायेंगे. मैं सिर्फ लूंगा नहीं, राष्ट्रपति को भी कुछ दूंगा. सच यह था कि मंजरवे का नाम किसी राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए नहीं गया था. किसी ने उन्हें बेवकूफ बनाया था. अभी वह इस छलावे में ही थे कि किसी ने मंजरवे को कह दिया कि आपके शिल्प कला केंद्र का भव्य निर्माण करवा देंगे, कैसा चाहते हैं आप? एक बार फिर से मंजरवे नकशा बनाने में लग गये और कपडा, लकडी, मिट्टी, कागज आदि से जोड कर मंजरवे ने शिल्प कला केंद्र का एक नमूना ही तैयार कर दिया. दो दिनों पहले जब मैं उनसे मिलने गया था तो उन्होंने अपनी किताब के बारे में पूछने के बाद उस नमूने को दिखाते हुए कहा था- ऐसा ही बन जाता शिल्प कलाकेंद्र तो मजा आ जाता, खूब काम होता... न तो खूब काम करने और न ही उसे देखने को मंजरवे अब इस दुनिया में हैं. उनका बेटा बिनू कलाकार से मजदूर बनने की राह पर है. जहां भी शिल्प कला केंद्र के लिए काम मांगने जाता है- सरकारी अधिकारी-बाबू पूछते हैं- संस्था है, एनजीओ है, ट्रस्ट है...आदि. इतने सवालों से जूझ कर आने के बाद बिनू जब अपने घर पहुंचता है, तो उस एक छोटे मकान में पडी मूर्तियां उन्हें ही चिढाती नजर आती हैं. बिनू अपने बाबूजी से भी कहते थे- आप जिंदगी भर मूर्तियों को गढते रहे, कभी हमारी जिंदगी गढने की परवाह भी किया होता. तब कुलदीप हंसते हुए कहते, मरूंगा तो जरा गाजे-बाजे के साथ कलाकारी वाले अंदाज में ले जाना, जलाना मुझे... बिनू ने किया भी वैसा ही. बाजा के साथ उनकी अर्थी उठी और घाट तक जाने वाले थे कुल जमा दस लोग... यह भी अजब संयोग था कि मंजरवे की मौत की खबर सुन कर उस सवाल का जवाब भी मिल गया, जो मैंने अपने दोस्त से मैसेज के माध्यम से पूछा था-आई वांट टू लीव फुल्ली, सो आई कैन डाई हैप्पी... इज इट पॉसिबल फॉर एनी वन ...?
सचिन श्रीवास्तव
मूलत: घुमक्कड़। इतिहास, दर्शन, सामाजिक सैद्धांतिकी, तकनीक, सोशल मीडिया, कला, साहित्य, फिल्म और क्रिकेट के अध्ययन में गहरी दिलचस्पी। संविधान, न्याय, लोकतंत्र के साथ तकनीक की राजनीति की परतें खोलने की कोशिश। मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले के ओंडेर गांव में जन्म। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मुंगावली और गंज बासौदा में। किशोरवय में भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) से जुड़ाव। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि, भोपाल से स्नातक। जालंधर, रांची, मेरठ, कानपुर, लुधियाना, भोपाल, इंदौर, गाजियाबाद, मुंबई, नोएडा आदि शहरों में विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरियां। डायरी से कविता और कहानी से रिपोर्ताज तक विभिन्न विधाओं में फुटकर लेखन। इन दिनों अपने शहर भोपाल में बतौर सामाजिक—राजनीतिक कार्यकर्ता उम्र को तुक देने की कोशिश... More