वामपंथियों को नहीं सुहा रहा भोपाल के चौबारे में लटकता नोबेल, क्यों?

भोपाल के आयोजन पर अब तक जो पढ़ा भूल जाइये। इस आयोजन के हासिल की असली कहानी, अपनी जुबानी

सचिन श्रीवास्तव
आयोजन बड़ा है— इसमें कोई दो राय नहीं।
आयोजन भव्य है— इसमें भी संदेह कहां?
आयोजन बड़ी पूंजी से हो रहा है— यह साफ है।
रीढ़ के पक्के और विचार से मजबूत वामपंथी लेखकों ने आयोजन से दूरी बना ली है— यह भी तथ्य है।
जिनको और किताबें छापनी हैं, कुछ मंचों से हुंकारना है, साहित्य की खुजली मिटानी है। वे आएंगे, पूरे दम से आएंगे, चीखकर आएंगे— इससे किसे इनकार है
तो आने वाले आएंगे, अपने हित साधेंगे। कुछ आयोजन की भव्यता पर मोहित होंगे। कुछ अन्य लिट फेस्ट की कड़ी में एक और पूंजी के प्रदर्शन पर आहत होंगे।
बस हो गया क्या! तो अब बात खत्म।

लेकिन नहीं साधौ
असली बात अब शुरू होती है। आयोजन के हासिल पर अभी तक अटकलें लग रही थीं। कुछ साहित्य में पैर जमकर जमाने, कद बढ़ाने की कोशिशों पर दांव लगा रहे थे, तो कुछ इसे सामान्य पीआर की तरह देख रहे थे। लेकिन भाई आगरा से वाया ग्वालियर सीधे भोपाल आना और आगरा से वाया खंडवा भोपाल आने में यही फर्क है। मठाधीशी भारतेन्दू हरिशचंद्र से अज्ञेय होते हुए राजेंद्र से वाजपेयी तलक किसी की चिरकालीन नहीं रही। चिरस्थायी है तो पुरस्कार। दुनिया का सबसे बड़ा साहित्यक पुरस्कार। डायनामाइट और बेलिस्टाइट के धमाके को अंजाम तक पहुंचाने वाले महामानव अल्फ्रेड के नाम का पुरस्कार। वही अपना प्यारा पीले रंग का बायां गाल दिखाता नोबेल।

टैगोर के नाम पर जलसा हो रहा है, तो इसके अंतरराष्ट्रीय मायने भी तो हैं साधौ। जबकि वो पहले ही कह चुके हैं कि मैं राष्ट्रवादी हूं, फिर तुरंत भूल सुधारकर अंतरराष्ट्रीयवादी बन गए। यानी सपना समझ गए न।

असल कहानी यही है। दिल्ली को जितनी राजनीति आती है, उससे बड़ी सोच आगरे ने पहले से देखी है। दद्दा माखनलाल के खंडवा ने इस पुष्प की अभिलाषा को पल्लवित किया है, तब कहीं भोपाल की झील के पानी से यह लहलहाई है।

तो साधौ जलसे में शामिल हो रहे देशजों पर अपनी नजर न थी, न है। ये बस ए​क दूसरे की टांग खिंचाई में रस लेने वालों की उपयोगी जमात है। इसका उपयोग हो लिया। असली आयोजन तो मेहमानों के लिए है। मेहमान आएंगे। उनके सामने 1000-500 की भीड़ वाले विभिन्न सत्र होंगे। उनमें अंदर क्या होगा, उससे क्या। असल बात तो ये है कि दुनिया को कौन बताएगा कि भोपाल के विभिन्न मंचों पर क्या हुआ। देश की सबसे बड़ी भाषा हिंदी। और बहुत संतोष से खालिस अंग्रेजी में जो बताएंगे, वहीं भारी भरकम तमगा ​हासिल करेंगे।

कोई मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर, नागार्जुन होंगे बड़े कवि। स्मृति शेष ही हैं केदार, भगवत, विष्णु, चंद्रकांत। और ये राजेश, मंगलेश, नरेश, विष्णु या फिर अंबुज, अरुण, आलोक, वेणु, बद्री कोई हों, आखिर शीश झुकाकर मंद मंद मुस्कुराहट के साथ 90 लाख स्वीडिश डॉलर की राशि, अंतरराष्ट्रीय कीर्ति पताका, चिरस्थायी साहित्यिक जीवन तो हमें ही मिलेगा। अहा-अहा क्या सुकून होगा। हिंदी का सबसे बड़ा केंद्र दिल्ली नहीं, अब भोपाल। क्योंकि जितना बड़ा आयोजन उतना बड़ा साहित्यिक केंद्र। और इस केंद्र का न्यूक्लियर कहां है; जहां सब अणु परमाणु चक्कर काट रहे हैं। विस्फोट यही होगा। आवाज यही से आएगी। स्वप्न तुम साकार होगे एक दिन, लेकिन इससे पहले तुम्हें आंखों में भर भर देखता हूं बार बार। मुस्कुराता हूं। विरोध की हर आवाज के कड़वे घूंट को अस इसी एक आस में पी जाता हूं।

रंग है हर जगह विश्व है, लेकिन भोपाल के जल से उठी तरंग को आप भूल गए। गीतांजलि को तरंग मिलेगी, जल के साथ। उपन्यास है, समग्र है, गीतमाला, विविध लेखों का दायरा है। साहित्य का इतना बड़ा वितंडा है। नोबेल के कर्ताधर्ताओं की आंख में यह न दिखेगा तो क्या दिखेगा।
तुम्हारा विरोध। तुम्हारी हामी और नकार।  (इस पर तो कवि पहले ही लिख चुका है- सभी तरह की सत्ता के खिलाफ)
इस बरस पर नजर ही नहीं, यह अगले तीन से पांच बरस की तैयारी है। धीरे धीरे बढ़ते हैं वो, तुम चाल समझो तब तक तो कई कदम आगे निकल चुके होते हैं।

तो इस तरह ठगवा नगरिया लूटल है।

और अंत में
व्यापारी के व्यापार को नहीं समझे थे कॉमरेड। हम पहले ही कहे थे कि पूंजी के बिना एक उंगली नहीं फड़क सकती बंदे की।
बस इतना ही कि-  "किस्सा कोताह" यानी मजाक से निकली "क्रूरता" बस इतनी कि देश के वामपंथियों को भोपाल के चौबारे में लटकता नोबेल सुहा नहीं रहा है। हां नहीं सुहाना चाहिए, क्योंकि सही हाथों में जब तक सही डोर, तत्व न होगा तब तक बेचैनी रहेगी। ये मुक्तिबोध की विरासत है। ये नागार्जुन की धूल है। ये शमशेर का पवित्र काव्य प्रदेश है। इसमें छलिये न सुहाए न सुहायेंगे।