तकते रहें बारिश को, जज्ब हो जाने तक

बारिश किसी के भी लिए एक रोमांटिक याद हो सकती है। बारिश के साथ कई अनुभव जुड़े होते हैं। अच्छे और बुरे। यकीनन हम दोनों ही यादों पर मुस्कुराते हैं और अपने भीतर कुछ नमी महसूस कते हैं। मैं जब अभी खिड़की से इस ठंड की पहली बारिश को देख रहा हूं तो बचपन की बारिश भी याद कर रहा हूं। बचपन की बारिश में मिट्टी की सोंधी महक भी होती है। घरवालों से नजर बचाकर गली में बारिश के पानी में पैर पटकने के दौरान कीचड़ से सने हुए शरीर बारिश के शो केस का सबसे रंगीन चित्र है। उसी जगह जहां हम कीचड़ से सने खड़े हुए हैं, जाना एक यादगार अनुभव होगा। हो सकता है हम ज्यादा ही संवेदनशील हों तो उस गली में, जो अब तक कांक्रीट की मजबूती हासिल कर चुकी होगी, काफी देर तक खंभे से टिके हुए खड़े रहें। और दिलचस्प यह भी कि उसी समय बारिश जाए और हम भींगकर छप्पर की ओट ले लें। इतने में ही कोई बच्चा कूदता हुआ गली के मुहाने से निकले और सर्र से गायब हो जाए। होने को कुछ भी हो सकता है, लेकिन किसी पुरानी जगह की याद भले ताजा हो, वह जगह हमें नहीं मिलेगी। गुजरते वक्त में हर जगह बदलती है। लोग भी और उनके साथ वहां की हवा और बारिश भी।
यानी जो इस वक्त घट रहा है वह इसके बाद कभी वापस नहीं आयेगा। यह जो गुजर जाएगा, वह किसी ब्लैक होल में जमा होगा। हमारा दिमाग में इसकी एक याद तो रहेगी, लेकिन वह भी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म की पुरानी रील की तरह। जिसमें कई जगहों पर धब्बे होंगे।

जैसे अब जब बारिश को सोचते हैं तो यह भी याद आता है कि इन दिनों बारिश तेज नहीं होती बस जैसे एक काम है यह भी मौसम का। वह बरस जाता है। अक्सर देर सबेर और बेहद कम। कुछ लोग इसके लिए हमें ही जिम्मेदार ठहराते हैं। यहां में पर्यावरण की पेचीदा बहस में नहीं पडूंगा। क्योंकि यादों में ढूंढे जाने वाले पेड़ भी हम काट चुके हैं, जिनसे पहले जैसी बारिश होती। तेज बारिश के लिए जो घने पेड़ चाहिए उन्हें बचाने वाले लोग नहीं रहे तो बारिश भी अब धीमी रफ्तार से गिरती है। और शायद इसीलिए बूंदे मिट्टी में धंसती नहीं हैं, बस फैल जाती है। वगरना बूंदें, जब मिट्टी पर पड़ती थीं, तो धूल का एक बेहद छोटा गुबार उठता था और बूंद एक गड्डा बना देती थी। जहां सख्त जमीन के नीचे से पत्थर झांकने लगते थे। घरों की मुंडेर से टपकते उरवाती के रेले ऐसा तेजी से करते थे और उन जगहों पर सफेद चुन-कंकड़ों का अच्छा-खासा अंबार लग जाता था। लंबी रिमझिम के बीच जब खेत-खलिहान के काम ठप होते थे, गोटी खेलने वालों के लिए ये पत्थर जरूरी थे। प्रकृति और इंसान का रिश्ता पहली बार बेहद साफ-साफ शक्ल में यहीं देखा था। बारिश काम पर नहीं जाने देती और बारिश ही खेलने के लिए गोटियां उपलब्ध कराती है। अब बारिश में भी काम पर जाने वालों की संख्या अच्छी खासी है और उसी अनुपात में बारिश में बाहर आने वाले कंकड़ कम हो गये हैं।

मौसम विभाग के अनुसार भी बारिश में बदलाव आया है। हालांकि इस विभाग की रपटें उस बदलाव को देखने की अभ्यस्त नहीं हैं, जो हर जगह की बारिशों में देखा गया है। अब जबकि स्थायी सिर्फ ई-मेल, फेसबुक और ऑरकुट के अकाउंट माने जाने लगे हैं, तो बारिश से अपने दो दशक पुराने रूप में लौटने की जिद एक मासूम इच्छा भर हो सकती है। जिसे कभी पूरा नहीं होना है।