एक ‘‘भारतीय कलाकार’’ के न रहने का सूनापन

भारतीय कला को विश्व पटल पर मजबूती देने वाले चित्रकार थे मकबूल फिदा हुसैन
हुसैन की याद आते ही उनके साथ जुड़े विवाद चले आते हैं। ये विवाद क्यों हुए! उनके पीछे कौन था! क्या हुसैन को विवादों के बीच रहना अच्छा लगता था! ऐसे सभी प्रश्नों पर यह एक तथ्य भारी पड़ता है कि मकबूल फिदा हुसैन ने भारतीय कला जगत को नया आयाम दिया। वे हमारे समय के ऐसे कलाकार थे, जिसकी दृष्टि बेहद साफ थी। कला और समाज के रिश्तों से बेहद गहराई से वाकिफ हुसैन की पेंटिंग, समझ और दृष्टि उन्हें दूसरे चित्रकारों से कतार में आगे खड़ा करती है।

युवा चित्रकार मुकेश बिजौले हुसैन के बारे में बात करते हुए भावुक हो जाते हैं। रुंधे गले से वे बताते हैं, ‘‘उनका रचना संसार इतना व्यापक था कि इसमें सूक्ष्म से सूक्ष्य चीजें भी दिखाई देती हैं।’’ हुसैन की कई खासियतों का जिक्र करते हुए मुकेश कहते हैं, ‘‘वे कैनवास पर सबसे पहले एक ब्लैक बोल्ड लाइन खींचते थे, और उसके इर्द-गिर्द एक आकृति उकेरते थे। उनकी इसी ब्लैक लाइन में पूरी पेंटिंग का इतिहास छुपा होता था। इसे हम पेंटिंग की लाइफ लाइन भी कह सकते हैं।’’

पेंटिंग को जीवन देने का यह रहस्यलोक हुसैन के साथ ही विदा हो गया। असल में कला के क्षेत्र में जहां सब चूक जाते हैं, वहां से हुसैन शुरू होते हैं। इस बात को पुष्ट करते हुए वरिष्ठ चित्रकार और संस्कृतिकर्मी अशोक भौमिक मानते हैं कि हिंदुस्तान की चित्रकला को खास पहचान दिलाने वाले कलाकारों में मकबूल फिदा हुसैन सबसे महत्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं, ‘‘जितनी संख्या में उन्होंने पेंटिंग बनाई वह खुद अपने आप में बड़ी बात है। उनकी आकृतिमूलक पेंटिंग्स में जड़ता नहीं है, जो यूरोपीयन पेंटिंग में आमतौर पर पाई जाती है। श्री भौमिक कहते हैं, ‘‘राजा रवि वर्मा से लेकर अन्य कोई भारतीय चित्रकार इस जड़ता को नहीं तोड़ पाया, हुसैन ने यह कारनामा कर दिखाया। उन्होंने अपने कैनवस पर एक आम भारतीय को केंद्रीय भूमिका में खड़ा किया।’’ अशौक भौमिक हुसैन के विवादों के संदर्भ में कहते हैं, ‘‘बाद के दौर में हुसैन के बारे में गलतफहमियां पैदा हुईं और चित्रकार बिरादरी ने इसका विरोध नहीं किया, इसका जवाब एक दिन भारतीय चित्रकारों को देना होगा।’’

अपनी पेंटिंग्स में जीवन के विस्तार के लिए जाने जाने वाले हुसैन ने कभी रंग संयोजन से चैंकाया नहीं, और न ही उन्होंने कभी छद्म बुद्धिवाद का सहारा लिया, जो इस दौर के अन्य चित्रकारों में आमतौर पर दिखाई देता है। पेंटिंग के माध्यम से बड़ी बात कह देने वाले हुसैन ने कई महत्वपूर्ण किताबों के मुखपृष्ठ भी बनाए। फैज अहमद फैज की किताब ‘‘सारे सुखन हमारे’’ के यादगार कवर के अलावा ‘‘कल्पना’’ पत्रिका के आवरण हुसैन नियमित तौर पर बनाते थे। धर्मयुग के लिए किया गया उनका काम भी उल्लेखनीय है। उनके पूरे काम को सामने रखने पर पता चलता है कि हुसैन न तो हिंदू चित्रकार थे और न ही मुसलमान, असल में वे भारतीय चित्रकार थे। जिसने भारतीयता की गहराई को आत्मसात किया हुआ था। आज जब हम चित्रकारों को बंगाली चित्रकार, गुजराती चित्रकार और मराठी चित्रकार के रूप में जानते हैं, तो याद पड़ता है कि कभी हुसैन को मुंबई या महाराष्ट्र के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं जाना गया। असल में वे हमारे दौर के एकमात्र ‘‘भारतीय चित्रकार’’ थे। उन्होंने महाराष्ट्र सीरीज की पेंटिग्स की हैं, तो बंगाल पर भी कलाकृतियां दी और केरल को भी कैनवास पर उतारा। हुसैन के चित्रों की बुनाबट एक आम भारतीय की बुनाबट के करीब है। इन चित्रों का प्रभाव देखने के लिए आपको अपने दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता। हुसैन की खासियत यही है कि वे अपने चित्रों में स्पष्ट संदेश छोड़ते हैं। हुसैन की पूरी कला यात्रा एक नंगे पैर वाले कलाकार की यात्रा है, जिसने हर जगह अपने निशान छोड़े हैं।

हुसैन के प्रभाव के बारे में चित्रकार पंकज दीक्षित कहते हैं, ‘‘उनकी कई पेंटिंग्स में घोड़े आते हैं। यह विभिन्न मुद्राओं में हैं। यह प्रभावित करते हैं। हुसैन की पूरी चित्रकला में गति है, उत्साह है, लय है, जो इन घोड़ों के माध्यम से सामने आती है।’’ श्री दीक्षित बताते हैं कि उन्होंने कैनवास पर जो रंग बिखेरे हैं, वह अमूर्त होते हुए भी मूर्त हैं।
श्री दीक्षित मानते हैं कि ‘‘हुसैन हमारे समय के शीर्ष चित्रकार थे और सिर्फ यही बात उनके बारे में महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वे शीर्ष पर बने रहे यह जरूरी बात है। इसके पीछे उनकी मेहनत और वह जमीन है, जहां से वह चले थे।’’
(10 जून 2011 को जनवाणी मेरठ में प्रकाशित)