मनुष्य के भीतर अपने विकास के हर चरण में एक अद्भुत नैसर्गिक प्रतिभा रही है। वह यह कि मनुष्य मुश्किल हालात से आखिरी वक्त तक जूझने की कला जानता है। विकास की यह बुनियादी शर्त है। आज जब पूंजीवाद अपने चरम की ओर बढ़ते हुए मुश्किल में दिखाई दे रहा है, तो इस विकास-प्रतिभा के मायने अलग, नए और अधिक व्यापक हो जाते हैं। आगे क्या होने वाला है! यह सवाल भय उत्पन्न करता है, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि इसी भय के कारण हम नए रास्तों पर बढ़ते हैं, और आज वक्त नए रास्तों पर चलने का ही है। आज हमारे समाने जो आर्थिक संकट है, वह दो तरह का है। पहला संकट है मनुष्य का संकट, जो बाजार की मार से परेशान है। दूसरा संकट पूंजीवाद यानी व्यवस्था का संकट है। पूंजीवाद के सामने भी संकट दोहरा है, पहला सकंट उसकी नीतियों में आई भयानक गड़बड़ियों और चूकों का है, जबकि दूसरा संकट जनता की तरफ से है, जिसे तुरंत कारगर उपाय चाहिए। 1930 की मंदी के बाद से करीब सात बार ऐसे हालात बने थे कि पूंजीवादी गति पर अंकुश लगा था। उन हालात में पूंजीवाद के कदम लड़खड़ाए जरूर थे, लेकिन उसने चाल में तब्दीली करके निजात पाई। कभी वेलफेयर स्टेट के नाम पर, और कभी बाजार में छोटी इकाइयों की स्थापना से। पूंजीवाद की मुश्किल हर बार यही रही है, कि उसके सामने चुनौती पहले से ज्यादा बड़ी, गंभीर और तयशुदा ढंग से आई है। सबप्राइम संकट के बाद अभी बिल्कुल ताजा संकट ऋण और साख का है। यहां से आगे मौटे तौर पर पांच राहें हैं। पहली राह, ठोस कदम और जोखिम के साथ पूंजीवादी गति को बढ़ाने की है, जिसमें उत्पादन बढ़ाकर तेजी हासिल की जा सकती है। दूसरा रास्ता, निजी उद्योगों में सरकारी रकम का ईंधन डालकर हवा बनाए रखने का है। तीसरा रास्ता, समाजवादी नीतियों और पूंजीवादी विकल्पों के साथ एक साझा विश्व अर्थव्यवस्था की कल्पना पर टिका है। चौथा रास्ता, पश्चिमी देशों से बाहर निकालकर पूंजीवाद का केंद्र एशिया और दक्षिण अमेरिका में केंद्रित करने का है और पांचवा और सबसे सार्थक रास्ता मुनाफे पर लगाम कसकर, समान अवसर की व्यवस्था लाने का है। यह निश्चित तौर पर पूंजीवादी आकाओं को ही तय करना है, कि वे किस ओर बढ़ते हैं, क्योंकि अंतत: विश्व की कमान उन्हीं के हाथों में है।
नीतियों में बदलाव के संकेतइटली की क्रेडिट रेटिंग डबलएटू से घटाकर एटू की गई थी, तो प्रधानमंत्री सिलवियो बर्लुस्कोनी इससे चौंके नहीं थे और उन्होंने सधे लफ्जों में बजट उद्देश्यों की प्रतिबद्धता दोहराई थी। इटली 2013 तक संतुलित बजट की योजना पर काम कर रहा है। यही हालात अन्य पश्चिमी देशों के हैं, और आने वाले दिनों में कुछ बेहद दिलचस्प बजट हमारे समाने आ सकते हैं। बीते 30-40 सालों में पूंजीवाद ने जो तेजी हासिल की थी वह दो वजहों से थी। पहली, श्रम की लागत कम करके मुनाफे को बढ़ाया गया और दूसरी चीज थी, लागत से बहुत अधिक मार्जिन पर बाजार को उत्पादों से पाट देना। यह दोनों ही बातें भ्रम बनाती है, और भ्रम का गुब्बारा फूटने पर उथल-पुथल मचती है, जिसके कारण हालिया सकंट बड़ा और मायनीखेज है। इस संकट ने एक और बात को गहराई से सिद्ध कर दिया है कि बाजार का व्यवहार मनुष्य से अधिक तय और गणितीय होता है। मनुष्य को यह लगता है कि वह बाजार को नियंत्रित कर रहा है, लेकिन असल में बाजार ही मनुष्य को चला रहा होता है। पूंजीवाद की इस बड़ी खामी से निपटने के लिए यह जरूरी वक्त है।
भारत समेत दक्षिण के लिए मुफीद समयश्रम और कच्चे माल की कम कीमत इस वक्त के बाजार के लिए जरूरी थी। अमेरिका, अफ्रीका और एशिया महाद्वीपों के दक्षिणी हिस्से संसाधनों की प्रचुरता के कारण इस संकट में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। अब तक बाजार ने जो गति हासिल की है, उसके पीछे सस्ता श्रम और कच्चा माल ही था। अगर पूंजीवाद अपने हालिया संकट से आगे बढ़ता है, तो यह समय पूंजीवादी केंद्र का पश्चिम से दक्षिण की ओर बढ़ने का समय भी होगा। दक्षिण यानी, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका के दक्षिणी देश और भारतीय उपमहाद्वीप, चीन समेत एशिया के दक्षिणी देश। गुलाम प्रथा, उपनिवेशवाद, तकनीक के बाद भूमंडलीकरण में दक्षिणी देश हाशिए पर रहे हैं, और ब्रिक के साथ इन देशों की भूमिका आने वाले समय में बढ़ने वाली है। उपनिवेशवाद के खात्मे के बाद बाजार की गति तेज करने के लिए भूमंडलीकरण का तर्क दिया गया था। संसाधनों के भयावह दोहन के यह तीन दशक अगर हमें आगे की राह के प्रति चेतावनी दे रहे हैं, तो साथ ही पिछली तीन शताब्दियों का इतिहास भी अपनी काली छवि के साथ सुरक्षित भविष्य की तरफ आगाह कर रहा है। नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवाद ने जब अपने कदम हौले-हौले बढ़ाए थे, तब दुनिया की आबादी एक अरब के करीब थी और आज यह सात अरब से अधिक हो चुकी है। ऐसे तीन बुनियादी चीजों पर ध्यान देना जरूरी है। बढ़ती विश्व जनसंख्या को काम देना और जीवन की न्यूनतम सुविधाएं देना आर्थिक प्रगति के बीच संघर्ष कम करने के लिए मजबूर करेगा।
युवाओं की भूमिकावॉल स्ट्रीट पर नारेबाजी करते युवा इसीलिए इस माहौल में खास हो जाते हैं, क्योंकि अब विरोध को लंबे समय तक ना तो दबाया जा सकता है और ना ही स्थितियों को भ्रामक आंकड़ों में उलझाया जा सकता है। बेरोजगारी पूंजीवादी बढ़त के लिए एक मुफीद हथियार रहा है। इसमें श्रमिकों की उपलब्धता का डर बताकर सस्ते श्रम से मुनाफा बढ़ाया जाता है। विरोध करने वाले हाथ कितनी तेजी से अपनी बात को लोगों में फैलाते हैं, यह स्थिति को बनाने और बिगाड़ने वाले संकेत साबित होंगे। पूंजीवाद के हर सकंट के समय एक बात पर कम ध्यान गया है, कि पीढ़ियां बदलते समय व्यवस्था की चाल में तब्दीली आती है। अमेरिका नीत विश्व व्यवस्था के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह हाल ही में सामने आई पीढ़ी के सपने, आकांक्षाओं और जरूरतों को ध्यान में रखे। यह पीढ़ी ग्लोबल वार्मिंग के दौर में सूचना तकनीक के साथ पैदा हुई है। इसलिए इसने साफ तौर पर समझ लिया है, कि आर्थिक विकास का अर्थ सभी के हाथों में कार और क्रेडिट कार्ड नहीं हैं।
हाल के जो संकेत मिल रहे हैं और पूंजीवादी समर्थक जिस किस्म के बयान दे रहे हैं, उसमें संभव है कि पूंजीवाद पुराने नैतिक गुणों के साथ नई शक्ल में सामने आए। यह नई शक्ल कितनी कारगर होगी, वह अभी साफ नहीं है, लेकिन वेलफेयर स्टेट को भुला देने वाले पूंजीवाद के लिए नई शक्ल के साथ अपने भंगिमाएं मिला पाना आसान नहीं होगा। क्योंकि अंतत: जनता बुरी व्यवस्थाओं के खिलाफ खड़ा होना जानती है।
(9 अक्टूबर 2011 को जनवाणी में प्रकाशित)