(21 अप्रैल को जनवाणी में प्रकाशित)
निर्मल बाबा ने ऐसा कुछ खास नहीं कर दिया है, जिस पर हाय-तौबा मचाई जा रही है। व्यवस्था में निर्मल बाबाओं की भरमार है। फर्क सिर्फ इतना है कि ठगी का यह कारोबार नए सिरे से और नए विकल्पों के द्वार खोल रहा है। पहली बात तो, निर्मल और बाबा को अलग-अलग करने की जरूरत है। निर्मल नरूला ने अपने जीवन के शुरुआती काल में कई किस्म के धंधे किए और खासियत देखिए कि सभी में उनका जोर कम मेहनत में ज्यादा पैसा कमाने पर रहा। इसलिए जब उन्हें धर्मांध लोगों की फौज और बाबा के रूप में नया रास्ता मिला, तो उससे परहेज क्यों करने लगे। निर्मल नरूला के बाबा बनने की कथा से पहले यह देखना चाहिए कि शातिरों और ठगों की हमारे समाज में पूरी श्रृंखला है। निर्मल नरूला अलग से नहीं उगे हैं। ठगी का पहला सिद्धांत है कि नियम-कानून से बचा जाए। निर्मल नरूला ने बाबा बनने से पहले ठोक बजाकर देखा कि वे कोई नियम तो नहीं तोड़ रहे हैं। जाहिर है किसी को कोई सलाह देना बुरी बात नहीं है। व्यक्ति अपनी मर्जी से निर्मल बाबा के दरबार में पहुंचता है। वहां उससे अपने स्वार्थ पहुंचाते हैं, बेहतर जीवन को आसानी से हासिल करने का स्वार्थ।
असली बात यह है कि मध्यवर्ग जो निर्मल बाबा का बड़ा ग्राहक है, उसे अपनी असफलता के पीछे कभी किस्मत, तो कभी कोई दूसरी शक्ति दिखाई देती है। धर्म, ज्योतिष या आडंबर जैसी चीजें उसे ऐसे रास्ते बताती हैं, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली के बजाए दूसरी चीजों पर असफलता का दोष मढ़ दिया जाता है। धर्म गुरु, यहां धर्म गुरु को अच्छे या बुरे के खाके में न डालें, सभी धर्म गुरु इसी कमजोरी को भुनाते हैं। निर्मल बाबा ने उसे अधिक निर्लज्जता के साथ भुनाया। इसलिए कहने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि असल में दोषी मध्य वर्ग का चरित्र है, जो सहज सफलता के लिए लालायित रहता है। किसी को सफलता का कठिन रास्ता बताने के बजाय अगर समोसा खाने और काला पर्स रखने की सलाह मिल जाए, तो उसे इसमें हर्ज नहीं लगता।
दूसरी बात, ऐसे बाबा या ज्योतिष हमेशा कमजोर नस पर चोट करते हैं। लोग भी अपनी परेशानी से उबरने के लिए, ‘चलो यह भी कर लें, क्या हर्ज है’ मार्का रास्ते पर चल पड़ते हैं। ज्योतिषियों की काली तिल, शनिवार को तेल चढ़ाने और पीपल की पूजा जैसे नुस्खों में इसके सूत्र मिलते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि धर्म अंतत: आदमी को अकर्मण्यता की ओर धकेलता है। धार्मिक व्यक्ति को सफलता और असफलता के बीच कभी कोई देवता दिखाई देता है, तो कभी कोई काली ताकत। वह इनसे पार पाने के लिए कभी मंत्रों तो कभी पूजा-पाठ का सहारा लेता है। निर्मल बाबा ने इसे अधिक आसान बना दिया।
बाबाओं की ताकत बढ़ने का एक और बड़ा कारण है, संख्या। समागमों में अक्सर हजारों की तादाद में लोग आते हैं, उनमें से अगर कुछ सौ के भी दुख, जोकि असल में दुख नहीं परेशानियां होती हैं, दूर हो जाएं, तो वे गुणगान करने लगते हैं और मौखिक विज्ञापन का कारण बनते हैं। इस तरह बाजार, धर्म, चालाकी और मध्यवर्गीय चरित्र का यह गठजोड़ घटने के बजाय बढ़ेगा।
आखिर में यह समझना चाहिए कि निर्मल बाबा इस व्यवस्था के बाई प्रोडक्ट यानी द्वितीय उत्पाद हैं। प्रोडक्ट धर्म है और व्यवस्था के भीतर से धर्म निकला है। धर्म के जितने भी बाई प्रोडक्ट होंगे, वे अंतत: व्यक्ति को कर्मकांडी और बुद्धिहीन बनाने की ओर ही ले जाएंगे, क्योंकि आखिरकार धर्म बदलाव में यकीन नहीं रखता। मान लिया कि किसी समय धर्म की जरूरत व्यक्ति के व्यवहार को सहज रखने के लिए थी। वह वक्त बीते हुए हजारों साल हो चुके हैं, लेकिन धर्म अभी भी अपने पुराने तरीकों से ही लोगों को हांक रहा है। दिलचस्प यह है कि लोग भी चले जा रहे हैं, धर्म के डंडे से।
(लेखक जनवाणी जुड़े हैं)
निर्मल बाबा ने ऐसा कुछ खास नहीं कर दिया है, जिस पर हाय-तौबा मचाई जा रही है। व्यवस्था में निर्मल बाबाओं की भरमार है। फर्क सिर्फ इतना है कि ठगी का यह कारोबार नए सिरे से और नए विकल्पों के द्वार खोल रहा है। पहली बात तो, निर्मल और बाबा को अलग-अलग करने की जरूरत है। निर्मल नरूला ने अपने जीवन के शुरुआती काल में कई किस्म के धंधे किए और खासियत देखिए कि सभी में उनका जोर कम मेहनत में ज्यादा पैसा कमाने पर रहा। इसलिए जब उन्हें धर्मांध लोगों की फौज और बाबा के रूप में नया रास्ता मिला, तो उससे परहेज क्यों करने लगे। निर्मल नरूला के बाबा बनने की कथा से पहले यह देखना चाहिए कि शातिरों और ठगों की हमारे समाज में पूरी श्रृंखला है। निर्मल नरूला अलग से नहीं उगे हैं। ठगी का पहला सिद्धांत है कि नियम-कानून से बचा जाए। निर्मल नरूला ने बाबा बनने से पहले ठोक बजाकर देखा कि वे कोई नियम तो नहीं तोड़ रहे हैं। जाहिर है किसी को कोई सलाह देना बुरी बात नहीं है। व्यक्ति अपनी मर्जी से निर्मल बाबा के दरबार में पहुंचता है। वहां उससे अपने स्वार्थ पहुंचाते हैं, बेहतर जीवन को आसानी से हासिल करने का स्वार्थ।
असली बात यह है कि मध्यवर्ग जो निर्मल बाबा का बड़ा ग्राहक है, उसे अपनी असफलता के पीछे कभी किस्मत, तो कभी कोई दूसरी शक्ति दिखाई देती है। धर्म, ज्योतिष या आडंबर जैसी चीजें उसे ऐसे रास्ते बताती हैं, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली के बजाए दूसरी चीजों पर असफलता का दोष मढ़ दिया जाता है। धर्म गुरु, यहां धर्म गुरु को अच्छे या बुरे के खाके में न डालें, सभी धर्म गुरु इसी कमजोरी को भुनाते हैं। निर्मल बाबा ने उसे अधिक निर्लज्जता के साथ भुनाया। इसलिए कहने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि असल में दोषी मध्य वर्ग का चरित्र है, जो सहज सफलता के लिए लालायित रहता है। किसी को सफलता का कठिन रास्ता बताने के बजाय अगर समोसा खाने और काला पर्स रखने की सलाह मिल जाए, तो उसे इसमें हर्ज नहीं लगता।
दूसरी बात, ऐसे बाबा या ज्योतिष हमेशा कमजोर नस पर चोट करते हैं। लोग भी अपनी परेशानी से उबरने के लिए, ‘चलो यह भी कर लें, क्या हर्ज है’ मार्का रास्ते पर चल पड़ते हैं। ज्योतिषियों की काली तिल, शनिवार को तेल चढ़ाने और पीपल की पूजा जैसे नुस्खों में इसके सूत्र मिलते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि धर्म अंतत: आदमी को अकर्मण्यता की ओर धकेलता है। धार्मिक व्यक्ति को सफलता और असफलता के बीच कभी कोई देवता दिखाई देता है, तो कभी कोई काली ताकत। वह इनसे पार पाने के लिए कभी मंत्रों तो कभी पूजा-पाठ का सहारा लेता है। निर्मल बाबा ने इसे अधिक आसान बना दिया।
बाबाओं की ताकत बढ़ने का एक और बड़ा कारण है, संख्या। समागमों में अक्सर हजारों की तादाद में लोग आते हैं, उनमें से अगर कुछ सौ के भी दुख, जोकि असल में दुख नहीं परेशानियां होती हैं, दूर हो जाएं, तो वे गुणगान करने लगते हैं और मौखिक विज्ञापन का कारण बनते हैं। इस तरह बाजार, धर्म, चालाकी और मध्यवर्गीय चरित्र का यह गठजोड़ घटने के बजाय बढ़ेगा।
आखिर में यह समझना चाहिए कि निर्मल बाबा इस व्यवस्था के बाई प्रोडक्ट यानी द्वितीय उत्पाद हैं। प्रोडक्ट धर्म है और व्यवस्था के भीतर से धर्म निकला है। धर्म के जितने भी बाई प्रोडक्ट होंगे, वे अंतत: व्यक्ति को कर्मकांडी और बुद्धिहीन बनाने की ओर ही ले जाएंगे, क्योंकि आखिरकार धर्म बदलाव में यकीन नहीं रखता। मान लिया कि किसी समय धर्म की जरूरत व्यक्ति के व्यवहार को सहज रखने के लिए थी। वह वक्त बीते हुए हजारों साल हो चुके हैं, लेकिन धर्म अभी भी अपने पुराने तरीकों से ही लोगों को हांक रहा है। दिलचस्प यह है कि लोग भी चले जा रहे हैं, धर्म के डंडे से।
(लेखक जनवाणी जुड़े हैं)