एक युग के अंत की शुरुआत

जी हां! इसी को कहते हैं, युग का अंत 

शुक्रवार 15 नवंबर 2013 को वानखेड़े स्टेडियम में अपनी आखिरी
पारी खेलकर जाते सचिन तेंदुलकर।
"युग का अंत" बीते दिनों का प्रचलित मुहावरा रहा है। कई बार तो जल्दबाजी में इसे लगभग अप्रासंगिक मौकों पर इस्तेमाल किया गया। हाल ही में भाजपा के राजनीतिक बदलाव और कई दिग्गज फिल्मी हस्तियों से लेकर साहित्य, कला और राजनीति के बड़े स्तंभों के अवसान को भी "युग का अंत" की नासमझ संज्ञाओं से नवाजा गया। दुखद घटनाओं के साथ एक परंपरा के वाहक का निधन हो या फिर इतिहास की धारा बदलने वाली घटनाएं, सभी के साथ आने वाली रिक्तता अपने आप में वक्त के एक बड़े टुकड़े को समेटे होती है, लेकिन उसका युगीय विश्लेषण अचानक या बेपरवाह नहीं हो सकता।
जब किसी व्यक्ति के नाम पर समय के किसी खास वक्फे का नामकरण किया जाता है, तो उस विशिष्ट शख्सियत की अपनी विधा में महारत के साथ अपने समय पर प्रभाव का भी आकलन किया जाता है। असल में युग-पुरुष अपने सामाजिक कार्यकाल से बाहर जाकर भी अपने समय को प्रभावित करते हैं और हालिया समय की सभी विधाओं पर "सचिन प्रभाव" को साफ तौर पर देखा जा सकता है। विज्ञापन की तेज दुनिया से लेकर राजनीति की बाजीगरी तक में सचिन के बल्ले की लय को महसूस किया जा सकता है। यही बात इस समय के क्रिकेट को "सचिन-युग" बनाती है।
नदी जब समुद्र में मिलती है, तो समुद्र के भीतर 80 मील का सफर तय करती है। इस रूपक की रोशनी में "सचिन-युग" के अंत की शुरुआत 2011 के वर्ल्डकप फाइनल से हुई और इस अंत को औपचारिक परिणति तक पहुंचने में ही ढ़ाई साल से ज्यादा का वक्त लगा। हालांकि "सचिन युग" के कुछ महत्वपूर्ण खिलाड़ी अभी मैदान में हैं और उनकी विदाई के बाद ही इस महान युग के पूरे प्रभाव का आकलन संभव होगा। यूं भी युग का अंत अचानक नहीं होता, न ही युग अपने अंत की घोषणा करता है। वह धीरे-धीरे बदलता रहता है। इस लिहाज से गांगुली की कप्तानी से धोनी के नेतृत्व को स्वीकार करते भारतीय क्रिकेट और रिकी पोंटिंग जैसे खिलाडि़यों के बल्ला टांगने के साथ "सचिन-युग" के अंत की आहट आने लगी थी। "सचिन-युग" का अंत महज एक मास्टर बल्लेबाज के कॅरियर का खात्मा भर नहीं है। व्यापक परिपे्रक्ष्य में यह "कलात्मक संहारकता" (क्लासिकल हिटिंग) का भी अंत है। विवियन रिचर्ड्स की परंपरा के वाहक सचिन में गावस्कर का धीरज, द्रविड़ की तकनीक और लारा की कलात्मकता का संगम भर देखना ही इस युग का भरा-पूरा चित्र नहीं हो सकता। क्योंकि "सचिन-युग" न तो 15 नवंबर 1989 (सचिन का पहला टेस्ट) से शुरू हुआ था और न ही 15 नवंबर 2013 को खत्म हुआ है। क्रिकेट का "सचिन युग" 1975 से शुरू होता है, जो 2011 के बाद अपने अंत की ओर अग्रसर है। इस युग में एकतरफ गावस्कर, रिचर्ड्स, लारा, पोंटिंग, कैलिस, हैंस से लेकर द्रविड़, डिसिल्वा, स्टीव वॉ और ग्राहम गूच आदि की बल्लेबाजी परंपरा है, तो दूसरी तरफ रिचर्ड हेडली, कपिल देव, वॉन, मैकग्रा, मुरलीधरन, वॉल्स, अकरम आदि की गेंदबाजी है। बल्लेबाजी और गेंदबाजी की कई परंपराओं के मिश्रण वाले इस युग को किसी एक शख्स के तौर पर जिस तरह सचिन ने प्रभावित किया है, उतना किसी और ने नहीं किया। इस दौर में ऐसा कोई मैच नहीं हुआ, जिसमें सचिन का जिक्र न हुआ हो, चाहे वह खेल रहे हों या न खेल रहे हो। खेल के हर पहलू, हर बारीकी, हर तकनीक पर जब भी कोई बात हुई, सचिन का जिक्र आया। इसीलिए इस युग का नामकरण सचिन पर किया जाना लाजिमी है।
क्रिकेट के दीवाने हिंदुस्तानी समाज ही नहीं, बल्कि वैश्विक क्रिकेट की डूबती-उतरती सांसों के साथ सचिन के बल्ले की लय को परखने पर साफ हो जाता है कि सचिन ने खेल को जीत-हार से कहीं ऊपर जीवन का सौंदर्य दिया। जब वे क्रीज पर हों, तब तो पूरा क्रिकेट समाज उनकी कलाइयों, कदमों और बाजुओं की हरकतों पर जिया ही। मैदान के बाहर भी सचिन ने सामाजिक बदलाव में अनायास ही योगदान दिया है। दुनिया को बदलने के औजार के रूप में राजनीति को सबसे मुफीद माना जाता है, और राजनीति दुनिया पर सबसे ज्यादा असर डालती भी है। ऐसे में क्रिकेट जैसे बदलाव के अपेक्षाकृत कमजोर औजार से दुनिया बदलने की कूव्वत ईजाद करने वालों में सचिन सबसे बड़े मास्टर थे। 1991 के भारतीय उदारीकरण के बाद के सबसे बड़े नायक के तौर पर सचिन को देखना, उस विस्तार को बौना करना है, जो सचिन ने क्रिकेट को दिया। बमुश्किल दर्जन भर देशों में खेले जाने वाले खेल को वैश्विक पटल पर अपनी पूरी धमक के साथ पहुंचने की जिम्मेदारी उठाने वालों में सचिन सबसे आगे थे और वे यहीं नहीं रुकते। सचिन ने जिस शास्त्रीय ढंग से क्रिकेट खेला वह जीवन की संगत भी था। शुरुआती सचिन के बल्ले से वनडे क्रिकेट की छोटी-छोटी पारियां निकलीं, 79 मैचों तक सचिन शतक के लिए तरसे, तो कप्तानी का बेहद बुरा अनुभव भी उन्होंने झेला। चोटों से जूझते सचिन आज भले ही भगवान लग रहे हों, लेकिन मैदान पर रनों के लिए कभी जूझते तो कभी झूमते सचिन ने जिंदगी के मुहावरे को जीवंत किया है। जहां खुशी और दुख साथ-साथ चलते हैं। यह सचिन ही थे जिनके क्रिकेट की थाप पर लोगों की जिंदगी की लय बनी। टीवी देखने और काम करने के वक्त तय हुए और छुट्टियों के समीकरण बैठाए गए। सचिन के क्रीज पर होने और न होने का फासला करोड़ों लोगों के शेड्यूल तय करता रहा था।
मौजूदा दौर के युवाओं में अपनी विधा के प्रति समर्पण भरने का बड़ा काम भी सचिन युग की देन है। यह सब कुछ "सचिन युग" के साथ खत्म नहीं होगा, क्योंकि हर युग आने वाली पीढ़ी को विरासत के तौर पर बहुत कुछ सौंपता है। सचिन युग ने भी क्रिकेट, जीवन और दुनिया को हौसला, हिम्मत, खुशी और जिंदा रहने का अपना तरीका सिखाया है। बदलते हुए क्रिकेट के साथ गेंद और बल्ले के बीच की सांसें थाम देने वाली जंग "सचिन युग" के साथ खात्मे की कगार पर है। कैलिस, चंद्रपॉल, जयवर्धने और संगाकारा के रिटायरमेंट के बाद "सचिन युग" पूरी तरह से खत्म हो जाएगा, और तब हमें क्रिकेट के किसी नए नायक का इंतजार करना होगा। इस बात का भी यकीन करना चाहिए कि क्रिकेट, बाजार और दर्शक अपना नायक चुन लेंगे।