आधुनिक कला क्षेत्र में जिन झारखंडी प्रतिभाओं ने अपना लोहा मनवाया है, दिलीप टोप्पो उनमें से एक हैं। लोहरदगा के जोरी से बीएचयू होते हुए रांची तक के सफर में दिलीप ने हर जगह खुद को साबित किया। दिलीप का बीएचयू से स्कल्पचर में एमए करना जाहिर करता है कि उनका मिट्टी से गहरा जुडाव है, उनका मन मिट्टी में रमता है. पिता छटठु उरांव और मां सनिल उरांव की आंखों में पलते सपने को दिलीप ने अपनी जमीन पर ही साकार किया. यही कारण था कि बडे शहरों की दौड से दूर दिलीप अपने लोगों के बीच जीवन गढ रहे हैं. झारखंड के कई चौक चौराहों पर लगीं दिलीप के सधे हाथों से बनीं मूर्तियां इस जीवन का एक हिस्सा हैं. दिलीप की कलात्मक खूबसूरती और संघर्ष का एक पहलू झारखंड का पहला आदिवासी संस्कृति संग्रहालय है, जिसे अपनी जिद और जद्दोजहद के बीच उन्होंने साकार किया है.
संस्कृतिकर्मी एक्टिविस्ट अश्वनी पंकज ने झारखंड के पहले बहुभाषायी पाक्षिक जोहार दिसुम खबर के लिए दिलीप टोप्पो से नागपुरी में लंबी बातचीत की। उसके कुछ अंशों का अनुवाद।
दिलीप अपने बारे में कुछ बताएं?
-मेरी शुरुआती पढाई लोहरदगा में हुई। कला में रुचि थी सो बीएचयू में फाइन आर्ट में दाखिला ले लिया और वहां से 1995 में मास्टर डिग्री हासिल की। स्टोन कार्विंग (स्कल्पचर) में स्पेशलाइजेशन के साथ. मां-पिताजी जोरी में रहते हैं. बीएचयू से निकलने के बाद रांची में ही रह रहा हूं. पत्नी सुमलन टोप्पो भी आर्टिस्ट हैं. अनुकृति (बेटी) और सौंदर्य (बेटा), दो बच्चे हैं.
बडे संस्थानों से निकलकर ज्यादातर लोग महानगरों की ओर रुख करते हैं, आपने रांची की राह चुनी। क्यों ?
-स्टूडेंट लाइफ से समाज और राजनीति विषय मेरे मन के नजदीक रहे हैं। जब झारखंडी जनता अपने अस्तित्व की आखिरी लडाई लड रही हो। ऐसे में एक युवा-छात्र उससे कैसे दूर रह सकता है? मैं खुद उरांव आदिवासी समुदाय से हूं और बचपन से ही झारखंडी समाज के ऊपर होने वाले भेदभाव को देखता-झेलता रहा हूं. इसीलिए हम लोगों ने आदिवासी छात्र संघ का गठन किया और छात्रों को एकजुट करना शुरू किया--इस भेदभाव के विरोध में. पढाई के दौरान ही तय कर लिया था कि मुझे वापस रांची ही आना है और समाज के लिए काम करना है.
कला का क्षेत्र काफी महंगा है और झारखंड में यूं भी इसका बाजार नहीं है। तब आपका गुजारा किस तरह होता है?
-यदि गैर झारखंडी लोग यहां आकर जी सकते हैं, तो फिर हम झारखंडी लोग अपने राज्य में क्यों गुजर-बसर नहीं कर सकते? बात एकदम ठीक है कि कला का क्षेत्र काफी महंगा है और आम आदमी का इसके तंत्र में घुसना बेहद मुश्किल। लेकिन आज का झारखंडी मानस बहुत बदल गया है। यहां संभावना हैं, तभी तो पिछले 12 साल से मैं यहां सक्रिय हूं. जब मैंने बीएचयू छोडा था तब मेरे पास कुछ भी नहीं था. उन दिनों आदिवासी हॉस्टल में रहते हुए समाज और कला दोनों के लिए काम शुरू किया. आज कम से कम मेरा अपना स्टूडियो है और वर्क आर्डर भी मिलते ही हैं.
आदिवासी समाज अपनी प्रकृति में ही कलाकर है, फिर भी आधुनिक कला क्षेत्र में उनकी उपस्थिति कम है। ऐसा क्यों?
-यह जीवन दर्शन और विचार का फर्क है। आदिवासी समाज में कला जिंदगी की भीतर ही होती है, जबकि मुख्यधारा का समाज कला को स्टेटस और पैसे से जोडकर देखता है। हालांकि इधर के दिनों में यह द्वंद्व यहां भी दिखाई देता है, लेकिन मुख्यधारा के समाज में कला आज भी पैसा कमाने का साधन ही है. इस तरह से देखें तो झारखंडी समाज आज भी व्यावसायिक नहीं हुआ है.
झारखंड में जो लोग कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं, उनमें आप खुद को कैसे अलग करके देखते हैं?
-झारखंड में दो जीवन दृष्टि हैं। एक बाहर से आए लोगों की और एक यहां के रहनेवालों की इन दोनों के जीवन और विचार में बुनियादी अंतर है। एक समाज प्रकृति के साथ चलने वाला है तो दूसरा महज उसका उपभोक्ता. यहां के कलाकर्म में भी यही दो जीवन दृष्टियां हैं. जहां तक मेरा सवाल है मैं स्वाभाविक रूप से झारखंडी जीवन दृष्टि का पक्षधर हूं.
नवगठित झारखंड में कला के लिए कैसा माहौल है?
-सरकारी स्तर पर इस दिशा में कई काम हो जरूर रहे हैं, जिनमें ज्यादातर कला और कलाकर्म को प्रोत्साहित करने के लिए हैं, लेकिन इनकी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। कलाकारों को झारखंडी जनता के करीब पहुंचकर उसके लिए संघर्ष करने की जरूरत है.