अनुपस्थितों की जगह का एकांत

पूरी हकीकत पूरी फसाना-दो
वीरेन
डंगवाल की कविता "इलाहाबाद 1970" का एक अंश है:-
छूटते हुए छोकडेपन का गम, कडकी एक नियामत दोसा
कॉफी हाउस में थे कुछ लघु मानव, कुछ महामानव दो चे ग्वारा
मनुष्य था मेरे साथ रमेंद्र
उसके पास थे साढे चार रुपये
सुबह जागते वक्त माथा दर्द कर रहा था. रूपेश को फोन किया. रमेंद्र के घर पहुंचे. चाय के साथ अखबारों में उतरे (हम खबरों से बाहर कभी नहीं आ पाएंगे शायद). तीनों गोल मार्केट की ओर बढ रहे थे. लडकियों को देखते हुए. लोगों पर टिप्पणियां करते हुए. बिंबों से दृश्य बनाते हुए. आज की हवा में पांच साल और दस साल और पंद्रह साल पहले की पहले की खुशबू महसूस करते हुए. मैं इससे अधिक पीछे नहीं लौट पाता. बचपन की स्मृतियां बहुत धुंधली हैं. रूपेश को ज्याद सघन रूप से अपना बचपन याद आता है. रमेंद्र तो उसे आज की स्थितियों से भी जोड देता है.
मुझे लगता है बचपन की अपनी कोई शक्ल नहीं होती. वह अक्सर बाद के दिनों में शक्ल लेता है. अच्छी बुरी. बचपन में मैं नहीं जानता था कि मेरा बचपन अच्छा है या बुरा. बस कुछ स्थितियां थीं जो अच्छी लगती थीं, मजा देती थीं. नदी में तैरना..... गलियों में दौडना.... आम तोडने जाना.... खेत से गायों के पीछे-पीछे आना....... चरवाहों के साथ मैदानों में घूमना...... इससे रोकने वाले तब मेरे खलनायक थे. मेरे ताऊ, पापा, बडे भाई. साथी थे- मनीष भैया, नवीन, रजनीश, गोलू, राघवेन्द्र, इंद्राज,...... हेमंत, विनोद. तब रात बहुत खराब लगती थी. आजकल रात का वक्त मेरा प्रिय वक्त है. राजेश जोशी की तरह. वे भी रात में खूब घूमते हैं. उनके प्रिय बिंब चांद की तरह. राजेश के जिस प्रिय काल को अरुण कमल राजेशीय कविता कहते हैं. वह असल में चांद मियां की जोशियाना हरकतें हैं. आपको याद होगा जब वे समुद्र को पॉलिथिन में भरकर उससे मिलने पहुंचे थे. तब दुनिया के डूबने के डर से भले ही उन्होंने नाव की सवारी करने के पानी पॉलिथिन से न निकाला हो, पर चांद टांक दिया था आसमान में बादल के ऊपर. वह बांका चांद.
यूं राजेश जी का यह अनुमान बिल्कुल गलत है कि चांद की पुलिसवालों में अच्छी मारपकड है. पुलिसिये तो चांद को हवालात की हवा खिलाने की कब से जुगत भिडा रहे हैं. पुलिसियों को लगता है कि चांद प्रेमियों को शह देता है और प्रेमी तो हमेशा से ही पुलिस की मुश्किल रहे हैं. चांद को हवालात में डालकर पुलिसवाले बच्चों का एक और खिलौना भी छीनना चाहते हैं. इस तरह उनके एक तीर से दो शिकार हो जाएंगे. प्रेमी और बच्चों को सताकर.
खैर मैं बात कर रहा था रात की. पिछली बार रात में टहलते हुए मुक्तिबोध के साथ रात हो गई थी. सुबह की चाय के बाद हम बुंदेलखंड में गांव की ओर चल दिये. हम बचपन की स्मृतियों पर गपिया रहे थे. मुक्तिबोध ने बातचीत का एक नरा पकडकरन कहा था-"हमारा बचपन वर्डसवर्थ की बातों को नहीं समझ सकता. वर्डसवर्थ ने 'ओड ऑन इम्मार्टेलिटी' कविता अपने बचपन में नहीं लिखी है. यह तो मानी हुई बात है कि बचपन में मनोभाव होते हैं...."
क्या आपका बचपन दबाया गया? मैंने टोका.
"मैं जब बचपन में घडी के पेंच खोलता था या जलते कंदील में यह खोजा करता था कि वहां क्या जल रहा है, तब मेरी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर रोक लगा दी जाती थी. जिज्ञासा या खोज के निसर्ग-दत्त गुणों को दबा दिया जाता था. मां अपनी बनाई हुई लाइन पर मुझे चलाती थी, पिता अपनी बनाई हुई लाइन पर चलाना चाहते थे. बालक की शंकाओं को यह लोग शांत नहीं करते थे. इससे बहुत से मेरे साथ के बच्चे बोदे हो गये, उनके मन दब गए और में विद्रोही होता चला गया".
क्या वह विद्रोह आपको ठीक लगता है. मतलब महज शंकाओं को शांत न कर सकने से उपजी बेचैनी का विद्रोह?
"आज लगता है वह एक अच्छी बात थी, क्योंकि विद्रोह जीवन का चिन्ह है. बालक का बडों से युद्ध सत्याग्रह ही कहा जा सकता है. मेरे उस विकास युग में मेरे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी खाने पीने, कपडे लत्ते तक ही समझते थे, जो अनुचित था. मेरे परिवार ने मेरे मानस को तैयार नहीं किया. हालांकि मानस को तैयार करना अपने विचारादि को उन पर थोपना नहीं होता. बालक उनको नहीं समझ पाता यहीं तो विग्रह की उर्वर भूमि है".
बचपन में दुलार तो आपको भरपूर मिला. कोई याद?
"तुम शैतान हो. मेरी बातें सार्वजनिक करना चाहते हो. मुझे फंसाना चाहते हो, लेकिन ठीक है. प्रश्न ऐसे ही सरकाना चाहिए. हां मुझे दुलार मिला. भरपूर. मां बताया करती थी. पहले दो लडके गुजर जाने से मेरा बडा लाड प्यार होता. कभी आंखों से ओझल नहीं होने दिया. पिताजी सब इंस्पेक्टर पुलिस थे. मुझे तब थाने के बरांडे में बिठा दिया जाता. एक सिपाही दूसरे सिपाही को पीटने का बहाना करता. दूसरा सिपाही मानो डरा हुआ मेरी शरणा मे आता और कहता-देखो रज्जन भैया हमें मारा. और झूठ मूठ रोने लगता. मैं फौरन कुर्सी से नीचे कूद पडता और पिताजी की छडी उठाकर मारने वाले सिपाही के पीछे दौड पडता. वह सिपाही छिपता, फिर पकड में आ जाता, मेरी मार खाता. वर्दी में लैस पिताजी यह सब देख अपनी घनी-घनी मूंछों में से हंसते रहते".
सिपाही को मारने के पीछे क्या था. क्या मुक्तिबोध का प्रतिकार भाव था. कोई मारे तो वे चुप नहीं रह सकते थे. पीडित के साथ होते थे. अपना स्टैंड लेते थे. क्या वे मुक्तिबोध के मुक्तिबोध बनने के दिन थे. वे दर्शक नहीं रह पाये कभी. एक्ट किया. आज भी कर रहे हैं. बस दिखाई नहीं देते. इधर के दिनों में मुक्तिबोध भीड से बच रहे हैं. वे लोगों से अकेले में मिलते हैं.
मुक्तिबोध बोल रहे थे-"बचपन का एक और चेहरा मैं नहीं भूल पाता. मेरी मटरगश्ती से तंग पिताजी ने क्षीरसागर (मुक्तिबोध के स्कूली दिनों के साथी, जो बाद में उनके पिताजी के पर्सनल असिस्टेंट हो गये थे और मुक्तिबोध के अकेलेपन के साथी) को मेरा ख्याल रखने की जिम्मेदारी दी थी. हम दोनों एक गंदे होटल में चाय पीने बैठे थे. होटल में एक लडका है पीले चेहरे वाला. पीलापन लिये लडके का चेहरा मुझे डिस्टर्ब करता रहा. लडका जिसकी आंखों में पीलिया का पीलापन घनीभूत था-मेरे सामने आया. उसकी आंखों की पीली झांई को देखकर मुझसे चाय न पी गई. मैंने क्षीरसागर का हाथ पकडा. चाय वहीं ठंडी होती रही. मोढे पर बैठे हुए होटल वाले से जब मैंने यह कहा-'लडका पीलिया का मरीज है', तो उसने सिपाही की पोशाक में क्षीरसागर को देखा. आंखें उसने मुझे देखकर नीचे झुका लीं, जैसे उसे मेरी बात अलजेब्रा का कोई गणित मालूम हो रही हो, बेकार और बेकाम".
मुक्तिबोध चुप हो गये. शायद वे अपने बचपन की किसी गुफा में थे. हम दोनों सडक से उतरकर स्कूल की ओर गोह में उतर गये थे. हमार खलियान शुरू हो गया था. पीपल के पेड के नीचे शंकर लिंग है. वहां एक नादिया भी है. हम छुटपन में बहनों के साथ इस चबूतरे को लीपने आते थे. इसी चबूतरे से कोई 50 मीटर आगे दक्षिण पश्चिम में इमली का पेड है और उससे कोई 75 मीटर आगे उत्तर पश्चिम में एक छोटा महुए का पेड. यह तीनों पेड हमारी स्मृति में ठुके हुए हैं. लुका छिपी से लेकर क्रिकेट तक यहीं खेला है. इन पेडों के पत्तों से यादें झरती हैं. कभी सूखी कभी गीली. कभी छोटी कभी बडी. हमेशा पत्तों की शक्ल में नहीं कभी कभी टहनी के साथ, जिसमें हम होते हैं अपने संगियों के साथ तितलियां पकडते, बेर बीनते, चोइये खाते, भिंडियां तोडते. भुट्टे भूनते. अब वे साथी नहीं हैं. पर लगता है वे मौजूद हैं.
शायद इसीलिए राजेश कहते हैं:-
अनुपस्थितों की जगह उपस्थित कभी नहीं भर पाते!
अनुपस्थित कहीं न कहीं ढूंढ ही लेते हैं अपनी जगह उपस्थितों के बीच