विलुप्त

विलुप्त. इस शब्द के ठीक ठीक उच्चारण और अर्थों से हमे जल्द और पूरी तरह परिचित हो जाना चाहिए. इसकी हमें लगातार जरूरत पडने वाली है. बेहद भरी पूरी दुनिया में कई चीजें अब दिखाई नहीं देतीं. इनमें सजीव और निर्जीव वस्तुओं से कई गुना ज्यादा चीजें इनकी संधि रेखा पर थीं, जो अब विलुप्त हैं.
जैसे बिहार, पूर्वांचल, मालवा, बुंदेलखुड, बघेलखंड से आए कई लडके दिल्ली की चमकदार सडकों पर आखिरी बार देखे गये थे, तब से वे विलुप्त हैं.
जैसे अपनापन, जिसका मनमोहक उदारीकरण के बाद के दिनों में कोई ठोस जिक्र किसी के व्यवहार में नहीं मिलता. यह अलग बात कि वह पहले भी महज दिलों में पाया जाता था. अब वहां से भी वह विलुप्त है.
जैसे अड्डेबाजी, जो भोपाल में 7 नंबर स्टॉप और रांची में फिरायालाल के साथ मुनिरिका, मंडीहाउस और मेट्रो जैसी जगहों के अलावा तिगड्डा और कालू चायवाले की दुकान पर आखिरी बार मैंने देखी थी. भले लोग बताते हैं कि कुछ जगहें बचीं हैं, जहां फोकटिये अभी भी जुटते हैं और कीमती वक्त को गुजारतें हैं. लेकिन उन पर भी गाज गिरने वाली है.
किस्सेबाज पहले ही विलुप्त हैं और हर बात पर हंस सकने वाले गेहूं काटते हाथ हारबेस्टरों में फंस गये हैं. वहां अब सिर्फ उनका पपडी पड चुका खुन है.
सुबह सुबह स्कूल जाते बच्चों का दृश्य भी हमारे समय से गायब है, उसकी जगह बसों में सेलफोन के नए मॉडल पर डिसकस करते किड्स हैं.
निजामउद्दीन पुल से लेकर 11 नंबर स्टॉप तक फैले मेहनतकश हाथों के बसेरे, जिन्हें चालू भाषा में झुग्गियां कहते हैं, उनकी जगह मेट्रो चल रहीं हैं, अक्षरधाम की नकलें उग रहीं हैं. यानी विलुप्ती के कगार पर हैं.
विलुप्त होती इन चीजों, दृश्यों, स्थितियों के बीच हम अकेले हो रहें हैं. आखिर दोस्त भी तो एक एक कर होते जा रहे हैं विलुप्त.