समझदार बेटों के लिए जिन्होंने मां को बाजार में उतार दिया है


अश्विनी पंकज मेरे मित्र नहीं हैं. मैं उन्हें जानता भी नहीं हूं. मैं कई बार उनसे मिला हूं. उनके साथ लंबी लंबी रातें बातों के सहारे गुजारी हैं. उनसे मेरा हर उस मोड पर बास्ता पडा जहां मैं सच के साथ खडा हुआ. झारखंड में रहते हुए जिन बहुत सारे लोगों का मुझे प्यार, साथ और अपनापन मिला उनमें शामिल अश्विनी मुझे हमेशा परेशान करते हैं. कभी अपनी बेलाग टिप्पणियों से, कभी बेधडक, बेपरवाह, दुनिया को ठेंगा दिखाने की अपनी साफगोई से. संप्रति उदयपुर में दशक भर लंबे थियेटर अनुभव और झारखंड में आजसू आंदोलन से लेकर डाक्यूमेंट्री फिल्मों में खान खनिज की सच्चाई तक के अपने सफर में अश्विनी कविता की दुनिया में भी रहे. उन्होंने यह कविता मुझे ई मेल की. नई इबारतें के लिए. आप भी रू ब रू होइये.

मेरे
पास मां है

माँ
को हक है

कि वह अपनी संतान को
कहीं भी डांटे
चाहे वह अखबार हो
टीवी हो
या उसका अपना ही आँचल

बहुत बड़े होने पर भी
हम करते हैं ढेर सारी गलतियाँ
सोच समझ कर भी
बिना सोचे समझे भी

माँ डांटती है
ज़िंदगी को गढ़ने के लिए
किसी और मां के आँचल को महफूज रखने के लिए
वह सनसनी नही ढूँढती
न ही वह करती है तहलका
उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं
कि मीडिया में मां का क्या रेट चल रहा है

न ही उसे इस सलीम-जावेदी डायलाग कि जरुरत है
- मेरे पास मां है
तुम्हारे पास क्या है?

बहुत समझदार बेटे
माँ को बाज़ार में उतार देते हैं
नासमझ बेटे जिंदगी भर मां की डांट खाते हैं।