एक और शहर. आपने अमावट बनते देखा होगा. परत दर परत. अमरस के घडों निकलता है रस. कई हाथ एक साथ कलछुल निकालते हैं. यज्ञ का सा माहौल होता है. उसी के बीच परत दर परत साथ चलता है चाचियों, दादियों, बुआओं और ताइयों का बतरस. मुहावरों से भरी उनकी भाषा की मिठास धीरे धीरे अमावट में समाती है और बन जाता है तरावटी थक्का.
क्या शहर इसी तरह हममें समा जाते हैं. लुधियाना में एक मेरठ, एक रांची, एक भोपाल, एक गोरखपुर, एक कानपुर और एक कलकत्ता परद दर परद घुल गया है. फिर कहता हूं- कोई फर्क नहीं है किसी शहर में सब कुछ एक जैसा हैं वही लोग वही मिठास और वही कमी......... नहीं कहूंगा
शुभरात्रि