खत्म हो गए फिजांओं के अनासिर

चित्रकूट यात्रा भाग दो

मुजमहिल1 हो गये कुवा2 गालिब
वह अनासिर3 में एतिदाल4
कहां
(1- शिथिल, श्रांत. 2- कुव्वत का बहुवचन यानी शक्तियां.
3- तत्व का बहुवचन यानी पंचतत्व. 4- संतुलन. )
मैंने खाना खाते वक्त रूपेश से इसका जिक्र किया. वे सहमत थे. इसके अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. उन्हें खाना खाना था. जो लजीज था. सचिन जैन सहाब का शुक्रिया अदा करते हुए मैं भी रोटियां तोडने लगा. रमेंद्र और दया शंकर भी मुझसे सहमत ही थे. लेकिन अलग कारणों से. प्रसून ने कुछ देशज कारण बताए, जिन्हें अखलाक ने चमकाया. उनका जिक्र यहां मुनासिब नहीं.
यूनिवर्सिटी के एक हालिया छात्र ने मुझसे बदलाव के बारे में पूछा और मेरे जवाब के बाद कहा- "हर वक्त की अपनी रिदम होती है. होगा आपके समय में कुछ अनूठा, दिल को छू जाने वाला, लेकिन उसकी जगह अब कुछ और है. नया और बेहतर."
मैं उस युवा होते पत्रकारिता के छात्र के आगे बूढा नजर आ रहा था. मैं उसे नहीं कहा पाया कि कोई किसी की जगह नहीं ले पाता दोस्त. न व्यक्ति न स्थिति. जो चला जाता हे उसके बराबर आयतन की जगह हमेशा खाली रहती है और उसके साथ चला जाता है वक्त का वह हिस्सा भी जो जिया गया था अपनी ही धुन में. असल में जरूरी हर समय की धडकन के साथ तादात्मय बैठाना ही होता है, जो हमने किया. बिना किसी अतिरिक्त सावधानी के. अपने पूरे खिलंदडेपन के साथ. तब अगर हडबडी में न होता वह छात्र जो उसकी पीढी की अपनी ही जल्दबाजी से उपजी है तो शायद मैं उससे कहता-
मैं तुमको बताऊं दोस्त कि हमारे समय में माखनलालियत का मर्तबा ही अलग था शहर के दूसरे कॉलेजों से
शहर के नामी पत्रकार हों, बडे और स्थापित कलाकार हों या फिर अदीब. सब जुटे रहते थे अपने आत्मीय चेहरों के साथ अलग अलग विभागों को खूबसूरत बनाने में.
मैं तुमको बताऊं यार कि सात नंबर चौराहे के बाईं और जहां अब सन्नाटा अपने पांव पसारे आराम फरमा रहा है. वहां कभी हुआ करता था मौज मस्ती के साथ पढाई का सिलसिला.
शहर की चिल्लपौं से अलग एकदम अलग था E-2/28 से 23 का समय. दुनिया भर की बहसों और खबरों के बीच अजूबे से समझे वाले इन लोगों के लिए 24 घंटे कम पडते थे गपियाने के लिए और कोई फर्क नहीं था इनके लिए रात और दिन में.
बात यह है दोस्त कि विश्वविद्यालय के सबसे भारीभरकम शख्स ने हमे सिखाया था कि दुनिया को देखो तो पूरी तरह देखो. इस आदमी को तुम पीपी सर के नाम से अब जानते हो. पहले यह हमारे ही बीच का एक हिस्सा हुआ करते थे.
मैं तुमको बताऊं दोस्त कि पहली बार जब युनिवर्सिटी में तालाबंदी हुई तो हम महज छात्र नहीं थे एक परिवार की बेहतरी चाहने वाले विद्रोही बच्चे थे और हमें लडने के तरीके उन्ही लोगों ने बताए थे हम जिनके खिलाफ खडे थे.
शुरू शुरू में हम एक दूसरे से कम बातें करते थे. फिर जैसे ही एक दूसरे की आवाजें पहचानीं तो बदलने लगा विवि का माहौल. तुम कभी उस अविकांत बेले से नहीं मिले जिसका आवाज से ही उसका होना माना जाता था. यानी उसे हर समय बोलते रहना था. उस वक्त यूनिवर्सिटी में पूर्व पश्चिम की तरह और पश्चिम पूर्व की तरह काम करता था.
हालांकि दोस्त मैं तुमसे क्या शिकायत करूं. बदलाव की हवा तो तभी बहने लगी थी अपने आखिरी दिनों में हम नहीं संभाल सके माहौल को जस का तस. तब सिकुडने लगीं थी बतियाने और गप्पे मारने की जगहें और दिन का ज्यादातर हिस्सा बचाने लगे थे लोग अपने कैरियर के लिए.
लेकिन तब भी मामा होटल था. अपनी पूरी शिद्धत के साथ जहां पिलाई जाती थी चाय ऊपर तक भरकर, क्रीमरोल के साथ.
मैं तुमको बताऊं दोस्त E-2/28 के दूसरे माले पर जो ई-1 की तरफ बालकनी है वहां एक टेबिल और चार कुर्सियां रखी होती थीं. वहां हमारी चौकडी जमती थी. कभी कभी जब नीचे कोई माखनलाली औरों से नजरें बचाकर न्यू मार्केट जाने को पकडता था दो नंबर. तो वहीं से होती थी जासूसी.
और फिर भारत भवन के अंधेरे में नाटक शुरू के बाद धीरे सें अंधेरे में पीछे की रौ में बैठते थे उस जोडे की अंजान बनकर. ऐसा करने पर दूसरे दिन का खाना पुखराज में मुफ्त होता था पूरी चौकडी का.
नीचे कमरे में बैठे पीपी सिंह को हमारे हर नए कारनामे की खबर होती थी और कभी कभी जब वे मूड में होते थे तो सिगरेट पीने के अलग अलग तरीकों से लेकर अपने सहपाठियों (जिनमें से एक आशुतोष राणा तब मायानगरी में बहुत नाम कमा रहा था).
धीरे धीरे कम होते गये उन किस्सों को सुनने वाले और उसी तरह खत्म होने लगी थी हमारी बैठकी की आदत. नए शहरों की नई राहों पर चलने का रोमांच हमें खींच रहा था. और इसकी जल्दी में हम वह सब अगलों को नहीं सौंप पाये जो दस्तक देता था हर दरवाजे पर कभी नाटक कभी पोस्टर और कभी बतरस के रूप में.
इस तरह एक एक कर हम विदा होते गए इस शहर से और अपने हिस्से की जगहों पर अब देखते हैं कि उदासी और नीरवता फैल गई है. जहां न तो ढोलक की थाप पर नुक्कड के लिए तैयार गीतों की गूंज है न साथ खाये आम की रसभरी महक.
(हो सकता है कुछ लोगों को चित्रकूट पर भोपाल भारी लगे. लेकिन क्या करें. जो लोग वहां थे वे जानते हैं कि भोपाल की यादों का गलियारा कैसे पूरे कार्यशाला के हॉल पर भारी था. बाकी आपकी शिकायतें कमेंट में डाल दें. कल पढिए इस यात्रा की अंतिम किस्त और देखिए कुछ विशेष फोटो)