हर शब्द का एक इतिहास होता है. कांति कुमार जैन जी से जाना था. कोई शब्द बनने की प्रक्रिया में कितना कितना कहां कहां से घिसा है. उसके साथ कहां कहां की धूल मिट्टी आई. किन राहों में संवरा और किनमें बिखरा. यह जानने, सुनने और समझने में मजा देता है, लेकिन यकीन जानिए महसूसने में बडी तकलीफ देता है. खैर इन सब से आप वाकिफ हैं और मुझसे बेहतर ढंग से वाकिफ हैं. फिलवक्त मैं एक शब्द कैडर में उलझा हुआ हूं. मेरे प्रिय शब्दों की सूची में यह बेहद पुराना शब्द है यह. राममंदिर "आंदोलन" के दौरान पहली बार यह शब्द सुना-पढा था. वह मेरी समझ के बनने का दौर भी था. तब उस भीड को कैडर कहा-लिखा जाता था, जो इतिहास की दराज से लंबे-लंबे जुमले निकाल कर अपने उन्माद को धारदार तर्क में बदल रही थी. तब जानकारी के जो साधन बुंदेलखंड के एक अध-पिछडे गांव में उपलब्ध थे उनमें चीजें एक ही तरफ से दी जा रही थीं. सो कुछ गलत तो लगता था लेकिन कितना और क्यों गलत है इसकी कोई साफ-साफ तस्वीर नहीं बनती थी. लेकिन तब बहुत गहरे में कहीं कैडर नकार वाले फोल्डर में सेव हो गया था. फिर अफसरों के तबादलों और एनसीसी की दो माही ट्रेनिंग के अलावा एनएसएस के पांच साल में कई तरह से यह शब्द जेहन में जगह बनाता गया.
नई सदी के पहले साल में कैडर को करीब से जाना. फ्रांस से अपनी यात्रा शुरू करते वक्त इस शब्द की तासीर, इसका ठोसपन और इसकी इतिहास दृष्टि और इसकी यूरोपीय यात्रा की समझ रखने वालों से मुलाकात हुई. अपने अपने संगठनों के जड पत्तों को जाने समझने वाले इन्ही लोगों के साथ भोपाल के काफी हाउसों, नुक्कडों, सभा, सेमिनार, झील और थियेटर की दुनिया में वक्त बिताते और प्रेस काम्पलेक्स की रातों में मैं कैडर हुआ. पत्रकारिता का कैडर. बुरा कैडर. पर समझने लगा था कि कितना ही दूर भागें अब यहीं रहना है. इससे निजात नहीं. उस वक्त भी और उसके बाद अलग अलग शहरों में उम्र बढाने के दौरान जाना कि एक कैडर के भीतर हर वक्त एक डर होता है. बता दूं कि इस समय तक नकार से एकाकार वाले फोल्डर में मूव हो चुके इस शब्द की राजनीतिक समझ से काफी हद तक वाकिफ हो चुका था. तो उन दिनों कई कैडरों से मिलना होता था. उनका डर वही था. सनातन डर. झूठ के मुलम्मे का डर और चेहरों पर चढी रंगीन पुताई का डर. जो जीवन वे जी रहे थे उसमें उन्हें पीछे देखने की फुरसत नहीं थी आगे देखने का भी वक्त नहीं था. बस अपने आसपास की दुनिया में जल रही आग से खुद को गर्म रखना होता था. रांची में एक कैडर के जीवन के बहुत करीब था और मैं इस कल्पना भर से कांप जाता था कि यह सपना नहीं है. यही उसका जीवन है. सच्चा, ठोस और भरपूर. उनकी खुशियों की हंसी इतनी धीमी होती थी कि वह पेट से नहीं निकल पाती. एक जंग लगे ताले के भरोसे अपना सबकुछ (जो चंद किताबों, दो जोडी कपडों, टूथपेस्ट, ब्रश, एक जर्जर हो चुकी तौलिया और घिस चुकी चप्पलों की शक्ल में नजर आता है) छोडकर वे अपने सीने में सपने और भरोसे के लाठी के साथ दिन की शुरुआत करते हैं. दुनिया की मक्कारियों को देखकर लाल होते हैं. निरे लाल. और किसी मासूम मुस्कुराहट के साथ खिलखिलाते हुए चाकलेट न खिला पाने की कसमसाहट को फीकी हंसी में घोलकर पी जाते हैं.
क्या जरूरी है जिंदगी को कैडर की ही तरह देखना? जबकि अपने सबसे बडे भरोसे की जीत पर हम सेंक रहे हों रोटियां.
मुझे जवाब मिला था- जरूरी नहीं कि हम कैसे जी रहे हैं, जरूरी यह है कि हम क्यों जी रहे हैं.
इसके बाद से कैडर शब्द मेरे लिए रीड ओनली हो गया.
अरूण आदित्य की इन पंक्तियों के बावजूद
नई सदी के पहले साल में कैडर को करीब से जाना. फ्रांस से अपनी यात्रा शुरू करते वक्त इस शब्द की तासीर, इसका ठोसपन और इसकी इतिहास दृष्टि और इसकी यूरोपीय यात्रा की समझ रखने वालों से मुलाकात हुई. अपने अपने संगठनों के जड पत्तों को जाने समझने वाले इन्ही लोगों के साथ भोपाल के काफी हाउसों, नुक्कडों, सभा, सेमिनार, झील और थियेटर की दुनिया में वक्त बिताते और प्रेस काम्पलेक्स की रातों में मैं कैडर हुआ. पत्रकारिता का कैडर. बुरा कैडर. पर समझने लगा था कि कितना ही दूर भागें अब यहीं रहना है. इससे निजात नहीं. उस वक्त भी और उसके बाद अलग अलग शहरों में उम्र बढाने के दौरान जाना कि एक कैडर के भीतर हर वक्त एक डर होता है. बता दूं कि इस समय तक नकार से एकाकार वाले फोल्डर में मूव हो चुके इस शब्द की राजनीतिक समझ से काफी हद तक वाकिफ हो चुका था. तो उन दिनों कई कैडरों से मिलना होता था. उनका डर वही था. सनातन डर. झूठ के मुलम्मे का डर और चेहरों पर चढी रंगीन पुताई का डर. जो जीवन वे जी रहे थे उसमें उन्हें पीछे देखने की फुरसत नहीं थी आगे देखने का भी वक्त नहीं था. बस अपने आसपास की दुनिया में जल रही आग से खुद को गर्म रखना होता था. रांची में एक कैडर के जीवन के बहुत करीब था और मैं इस कल्पना भर से कांप जाता था कि यह सपना नहीं है. यही उसका जीवन है. सच्चा, ठोस और भरपूर. उनकी खुशियों की हंसी इतनी धीमी होती थी कि वह पेट से नहीं निकल पाती. एक जंग लगे ताले के भरोसे अपना सबकुछ (जो चंद किताबों, दो जोडी कपडों, टूथपेस्ट, ब्रश, एक जर्जर हो चुकी तौलिया और घिस चुकी चप्पलों की शक्ल में नजर आता है) छोडकर वे अपने सीने में सपने और भरोसे के लाठी के साथ दिन की शुरुआत करते हैं. दुनिया की मक्कारियों को देखकर लाल होते हैं. निरे लाल. और किसी मासूम मुस्कुराहट के साथ खिलखिलाते हुए चाकलेट न खिला पाने की कसमसाहट को फीकी हंसी में घोलकर पी जाते हैं.
क्या जरूरी है जिंदगी को कैडर की ही तरह देखना? जबकि अपने सबसे बडे भरोसे की जीत पर हम सेंक रहे हों रोटियां.
मुझे जवाब मिला था- जरूरी नहीं कि हम कैसे जी रहे हैं, जरूरी यह है कि हम क्यों जी रहे हैं.
इसके बाद से कैडर शब्द मेरे लिए रीड ओनली हो गया.
अरूण आदित्य की इन पंक्तियों के बावजूद
पर मन के पीछे जो डर है
और डर के पीछे जो कैडर है
जो सीधे-सीधे नहीं दे रहा है मुझे धमकी या हिदायत
उसके खिलाफ कैसे करूं शिक़ायत?