वहां पत्थर भी गुनगुनाते हैं

मिशन भोपाल- 1

लिखना अब और भी मुश्किल होता जा रहा है. न वह साफगोई रही और न इम्कानियत कि हर चीज को आंख भर देखकर जुबानभर कह सकूं. डीबी स्टार में मिशन भोपाल के लिए लिखने की बात आई तो हाथ फूल गए और जुबान चिपकने लगी. निजी लेखन तो रियायत के साथ किया जा सकता है, लेकिन जिम्मेदारी के साथ लिखना मेरे बस का न था. अविनाश जी को कई बार कहा लेकिन जब लगा कि इस पचडे से नहीं बचा जा सकता तो लिखना शुरू किया. पहली किस्त ताजुल मस्जिद पर थी.. मित्रों की उत्साही प्रतिक्रियाओं और बुजुर्गों की तारीफी निगाहों ने हौसला बख्शा और सिलसिला शुरू हुआ. ये पोस्ट भोपाल की उन्हीं कतरनों का हिस्सा. पहला हिस्सा.


पत्थरों की भी जुबान होती है, लेकिन वे बोलते बहुत धीरे हैं। पहली बार हमने दोस्तों के साथ खाली शामों में पत्थरों की खनखनाती आवाज भरी थी, तो जाना था कि सुनने वाले कम होते जाते हैं, तो पत्थर भी चुप्पी ओढ़ लेते हैं। यकीन न आए तो रॉयल मार्केट से ताजमहल की ओर जाते हुए थोड़ा वक्त ताजुल मसाजिद के पत्थरों के साथ गुजार लें। वे खूब बोलते हैं, बस उनसे दोस्ती भर गांठ लें। आठ-दस साल पहले ताजुल मसाजिद के भीतर बायीं ओर फैले मैदान में हम दोस्तों की गप्पबाजी में शरीक हुए ये पत्थर सन् 1868 में सीहोर, रायसेन, विदिशा और मंदसौर के अलग-अलग हिस्से से आए थे। भोपाल की नवाब शाहजहां बेगम का ख्वाब पूरा करने। दुनिया की सबसे बड़ी मसजिद तामीर करने का ख्वाब पूरा करने। 1901 तक आते-आते पैसे की तंगी के कारण ताजुल मसाजिद का निर्माण रुक गया, लेकिन तब तक यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मसजिद का दर्जा पा चुकी थी। हालांकि मोतिया तालाब को भी मसाजिद का हिस्सा मान लो तब यह दुनिया की सबसे बडी मस्जिद है. आखिर वजू की जगह तो मस्जिद का हिस्सा ही हुई न. बीच का जो हिस्सा देख रहे हैं न. ये कभी तीस फीट गहरा हुआ करता था. आजादी के बाद किला टूटना शुरू हुआ तो उस मलबे को ताजुल के इसी हिस्से में भर दिया गया. संगमरमर से बनी अपनी तीन गुंबदों के साथ मुस्कुराते हुए आने वालों का इस्तकबाल करने वाली ताजुल के उत्तरी भाग में जनाना इबादतगाह है। यह बात बीती सदी की शुरुआत में तामीर की गई अन्य मसजिदों से ताजुल को अलग रंग देती है। ताजुल मसजिद के भीतर वक्त गुजार रहे कुछ पत्थरों के यार ढाई सीढ़ी की मसजिद में भी हैं, जो गांधी मेडिकल कॉलेज के कैंपस का हिस्सा हो गई है। दिलचस्प है कि ढाई सीढ़ी की मसजिद एशिया की सबसे छोटी मसजिदों में शुमार की जाती है, पर है ताजुल की बड़ी बहन। तोप लेकर बुर्ज पर किले की निगरानी करने वाले तोपचियों के लिए एक पल भी बुर्ज से कहीं जाने की इजाजत नहीं थी. सो उन्होंने वहीं इबादतगाह बनाना शुरू कर दिया. वे कोई कारीगर तो थे नहीं इसलिए तीन पाए में से दो तो पूरे बन गए लेकिन नाप जोख की कमी के कारण तीसरा पाया आधा ही बन पाया और मस्जिद का नाम हो गया- ढाई सीढी की मस्जिद. ढाई सीढ़ी की मसजिद को भोपाल की सबसे पुरानी यानी सबसे उम्रदराज मसजिद होने का रुतबा भी हासिल है। हालांकि ताजुल और ढाई सीढ़ी में कभी बड़प्पन-छुटपन जैसी बात नहीं रही। दोनों ही बहनों ने अपने अतीत से खुद कुछ यूं जोड़ रखा है कि ताजुल से मिलो और ढाई सीढ़ी के पास न जाओ तो ताजुल को खराब लगता है और ढाई सीढ़ी से ताजुल की बात न करो तो वह बुरा मान जाती हैं। अब ताजुल कुछ उदास भी रहती है। हर साल लगने वाले तीन दिनी इज्तिमा के दौरान यहां रौनक हुआ करती थी, लेकिन जगह की तंगी को देखते हुए अब इज्तिमा ने गाजीपुरा की ओर रुख कर लिया है। इसी बीच अब रहमान चचा, जो दायीं ओर तालाब के कनारे चाय की गुमठी लगाते थे, न जाने कहां चले गए, बस बचे हैं तो वे पत्थर जिन्होंने बोलना कुछ कम कर दिया है-सुनने वाले जो नहीं रहे।