छोटी झील से रोशनपुरा की ओर जाओ तो पुराना भोपाल अलविदा की शक्ल में हाथ हिलाने लगता है। पुराने भोपाल से लौटते हुए पीएचक्यू के बाद ये शहर सुस्ताता है। परेड ग्राउंड में, जिसकी मिट्टी में नवाबी दौर में हुई फौजी परेडों की खटखटाहट महसूस की जा सकती है। रियासतकालीन पल्टनों की की परेड के लिए तैयार किए गए इस ग्राउंड से नवाब जहांगीर मोहम्मद खान का रिश्ता रहा है। जब उन्होंने जहांगीराबाद बसाया, उसी समय अरेरा हिल के नीचे की तरफ पीएचक्यू की इमारत तामीर करवाई और पीएचक्यू के करीब यह मैदान। चूंकि मैदान में परेड होती थी, सो इसे परेड ग्राउंड कहा जाने लगा और मिट्टी की सुर्खी ने नाम के साथ लाल रंग को जोड़ दिया। नवाबी दौर से लेकर ब्रिटिश राज के खात्मे और उसके बाद भोपाल की तहजीब को करीब से देखने वाले लाल परेड ग्राउंड ने देश के कई रहनुमाओं, शायरों और अदीबों को सुना है, अपनी पूरी समझदारी के साथ। सन् 1952 में जवाहरलाल नेहरू भोपाल आए, तो उन्होंने यहीं से भोपाल से गुफ्तगू की और बाद में इंदिरा गांधी ने परेड ग्राउंड में ही कहा था कि, `पहले भोपाल में असली अंडा मिलता था, अब तो यहां के अंडे भी नकली हो गए हैं।´
लाल परेड ग्राउंड पर कई यादगार मुशायरे, जलसे और राजनीतिक सभाएं हुईं हैं। 1977 का मशहूर भारत-पाक मुशायरा इसी ग्राउंड पर हुआ, जिसमें दोनों देशों के नामचीन और पाये के शायरों ने शिरकत की। इनमें दो नामों का जिक्र खास तौर पर लोग करते हैं- अहमद फराज और सागर आजमी। उसी मुशायरे में सागर आजमी के एक शे´र के बारे में कहा जाता है कि सुनने वालों ने लगातार 45 मिनट तालियां बजायी थीं। शे´र था -
फूलों से बदन उनके, कांटे हैं जबानों में।
आहिस्ता जरा चलिए शीशे के मकानों में।
फिलहाल इस ग्राउंड की व्यवस्था का जिम्मा पुलिस प्रशासन के पास है, जो पीएचक्यू से ग्राउंड पर नजर रखता है। अब पता नहीं प्रशासन पीएचक्यू के पीछे ही सो रहे नवाब जहांगीर मोहम्मद खान से इस बारे कितनी सलाह लेता है।