रात हो गई है. पास की नाली के पास रहता मेंढकों का परिवार एक लय में चीख रहा है. नहीं नहीं गा रहा है. शायद उनका कोई दुख उनसे छूट गया है. उस मेंढकी के परिवार में कितने लोग होंगे नहीं कह सकता पर वह अकेली नहीं होगी. प्यास होंठों को सुखाने लगी है और मैं अंधेरे में पानी की बोतल टटोलता हूं. किसी किताब पर हाथ पडता है और उसके कागज फडफडाने लगते हैं. टर्र टर्र ज्यादा भली लगती है इस फर्र फर्र से. हाथ खींच लेता हूं और थूक गटक लेता हूं. शायद बोतल का ढक्कन खुला रह गया था, अंधेरे में गलत हाथ पड गया तो नाहक पानी फैल जाएगा. किताबें गीली हो जाएंगी. इससे अच्छा तो प्यासा रहना ही है. पानी मेरे गले को चाहिए, किताबों ने पानी नहीं मांगा.
प्यास से ध्यान हटाने के लिए फिर मेंढक के बारे में सोचता हूं. वह पानी में तैर रहा होगा. नहीं भी तैर रहा होगा तो टांगे पसारे लेटा होगा. गर्मी को चिढाता हुआ. आवाज बंद हो गई. शायद उसकी आंख लग गई होगी. लेकिन बच्चे तो टर्रा सकते हैं, उन्हें डपटकर चुप तो नहीं कर दिया. उसके बच्चों की उम्र का अंदाजा लगना मुश्किल है. आवाज उम्र को धोखे में रखती है. अभी शाम को जिस दोस्त से बात हो रही थी वह भी कच्ची उम्र में बूढी आवाज निकाल रहा था. बातों में भी बुढापा झलक रहा था. लेकिन मानने को मन नहीं करता कि मेंढक बूढे होते होंगे. मेंढक हमेशा गुहारते रहते हैं. अपनी अकेली आवाज में दुनिया भर की लानतें खाते हुए. जो जाग रहे हैं, उन्हें लगता है मेंढक सोने नहीं देते, जो सो चुके हैं उनकी नींद में टर्र टर्र हो रही है.
फिर फर्र फर्र की आवाज आती है. शायद खिडकी से हवा का झोंका आया था. उसने किताबों को फिर खोल दिया था. मेरी पीठ पर पसीना फैल चुका है, वहां झोंका आता तो कुछ राहत मिलती. राहतों का इंतजार ही किया जा सकता है. वह प्रकृति से हो चाहे सरकार से.
कल प्रणब मुखर्जी नाम का कोई नेता कहा रहा था कि जल्द राहत मिलेगी, महंगाई से, मंदी से, पर उन्होंने भी गर्मी का जिक्र नहीं किया था. उसी वक्त लाइट चली गई थी. तब से नहीं लौटी. ये लाइट जाती कहां है. जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तभी चली जाती है. एक अकेली लाइट कहां कहां रहे. इसे हर जगह जाना होता है. आज खूब पार्टियां हुई हैं रात में देर रात तक, वहां लाइट को पहुंचना होगा, इसलिए यहां से चली गई. पार्टी में मौजूद ज्यादा लोगों का मजा किरकिरा न हो यह जरूरी है. मुझे तो यूं भी पसीना पोंछने की आदत हो चली है.
सुबह का इंतजार करना चाहिए. घडी है नहीं. मोबाइल भी डिस्चार्ज हो चुका है. लेकिन हवा का झोंका तो आया था यानी 3 से ऊपर का वक्त हो गया. बस एक घंटे और इंतजार फिर हवा थोडी तेज चलने लगगी. मैं आंख बंद किए पडा हूं, बालकनी का दरवाजा खुला है. हवा यही से आएगी. रोशनी यहीं से आती है.
सचिन श्रीवास्तव
मूलत: घुमक्कड़। इतिहास, दर्शन, सामाजिक सैद्धांतिकी, तकनीक, सोशल मीडिया, कला, साहित्य, फिल्म और क्रिकेट के अध्ययन में गहरी दिलचस्पी। संविधान, न्याय, लोकतंत्र के साथ तकनीक की राजनीति की परतें खोलने की कोशिश। मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले के ओंडेर गांव में जन्म। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मुंगावली और गंज बासौदा में। किशोरवय में भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) से जुड़ाव। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि, भोपाल से स्नातक। जालंधर, रांची, मेरठ, कानपुर, लुधियाना, भोपाल, इंदौर, गाजियाबाद, मुंबई, नोएडा आदि शहरों में विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरियां। डायरी से कविता और कहानी से रिपोर्ताज तक विभिन्न विधाओं में फुटकर लेखन। इन दिनों अपने शहर भोपाल में बतौर सामाजिक—राजनीतिक कार्यकर्ता उम्र को तुक देने की कोशिश... More