हर कालखंड को चौंकाता रहा अपने समय का हरफनमौला रचनाकार

9 सितंबर को जन्मदिन पर विशेष
भारतेन्दु हरिश्चंद्र। नाटककार, कवि, पत्रकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार, कहानीकार और भी कई रूप, यानी संपूर्ण लेखक। यात्रा-प्रेमी, शिक्षा-प्रेमी और लेखन-प्रेमी इस अद्भुत शख्सियत को याद करने की यूं तो कोई तारीख नहीं, वे हमेशा याद आते हैं। उन्हें याद करना अपने समय को परखने की तरह ही है। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता जब आखिरी सांसें ले रही हो, तो आधुनिक हिंदी के जन्मदाता के जन्मदिन के बहाने उनके समय पर गौर करना चाहिए। 1850 में 9 सितंबर को काशी के एक धनी वैश्य परिवार में जन्में भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता गोपाल चंद्र खुद भी एक अच्छे कवि थे और गिरधर दास उपनाम से कविताएं लिखा करते थे। मूल नाम हरिश्चन्द्र था, भारतेन्दु उनकी उपाधि थी, जो काशी के विद्वानों ने सन् 1980 में दी थी। किसी जीवन का सही उपयोग क्या होता है, यह हिंदी नाटकों का सूत्रपात करने वाले भारतेंदु जी के जीवन पर नजर डालकर समझा जा सकता है। 35 साल की छोटी उम्र पाने वाले भारतेन्दु ने हिंदी साहित्य में जो जोड़ा है वह बेजोड़ है। शुरुआत से देखें तो, उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली। घर में ही भारतेन्दु ने हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी सीखी। पांच साल की नन्हीं उम्र में बालक हरिश्चंद्र ने एक दोहा लिखा-
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।
इसे हिंदी साहित्य के पितामह के रचनाकर्म की शुरुआत माना जा सकता है। ध्यान रखिए कि इसी उम्र में भारतेन्दु ने अपनी मां को खोया था। 10 साल की उम्र में पिता का साया भी भारतेन्दु के ऊपर नहीं था। 15 साल की उम्र में भारतेंदु ने विधिवत साहित्य सृजन शुरू कर दिया था और 18 की उम्र में उन्होंने 'कवि वचन-सुधा' नामक साहित्यिक पत्र निकाला, जिसमें अपने समय के शीर्ष विद्वानों की रचनाएं प्रकाशित हुईं। वे 20 वर्ष की उम्र में साहित्यिक सभा के ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। इसके तीन साल बाद 1873 में उनकी पहली गद्य कृति 'वैदिक हिंसा हिंसा न भवति' आई। इससे पहले 71 में उनकी कविता पुस्तिका 'प्रेममालिका' आ चुकी थी। इसी समय भारतेन्दु ने विशाखदत्त के मशहूर नाटक 'मुद्राराक्षस' का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद किया। उनके बाद कुछ अन्य लेखकों ने भी इस नाटक का अनुवाद किया, लेकिन जो ख्याति भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुवाद को मिली, वह किसी और को नहीं मिल सकी। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'सत्य हरिश्चन्द्रं' (1875), 'श्री चन्द्रावली' (1876), 'भारत दुर्दशा' (1876-1880 के बीच), 'नीलदेवी' (1881) जैसे मौलिक नाटक भी लिखे।

साहित्य सेवा और समाज सेवा भारतेंदु जी के लिए अलग-अलग काम नहीं थे, बल्कि वे एक ही गाड़ी के दो पहिए थे। परेशानहाल जनता, साहित्यिक दोस्तों और आसपास के लोगों की निजी सहायता करते-करते भारतेंदु खुद कर्ज में डूब गये। तंगहाल भारतेंन्दु बीमार भी रहने लगे और आखिरकार 6 जनवरी 1885 को सतत् रचनाकर्म में लगा एक गंभीर नाटककार, राष्ट्रप्रेमी कवि और कुरीतियों के खिलाफ लिखने वाला व्यंग्यकार व सच्चा साहित्यिक नेता हमेशा के लिए चुप हो गया। उनका मूलमंत्र था-
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे हिय को शूल।।
और सारी उम्र उन्होंने यह अपने जीवन से साबित किया। महज 18 सालों के रचनाकर्म के आधार पर हिंदी साहित्य में उनका जीवन काल उनके युग के नाम से जाना जाता है। इससे समझा जा सकता है कि अपने समय के साहित्य पर भारतेन्दु का प्रभाव किस हद तक होगा। भारतेन्दु जिस कालखंड में लिख रहे थे, अपने समाज से बातचीत कर रहे थे वह सन्धिकाल है। रीतिकाल की विकृत सामन्ती सोच को सींचने वाली परंपरायें पूरी तरह मिटी नहीं थीं और कुछ रचनाकार उन्हें जीवित रखना चाहते थे। ऐसे में भारतेन्दु ने स्वस्थ्य परम्परा की जमीन पर अपनी लेखनी चलाई और आधुनिकता के बीज बोए। आधुनिक काल की शुरुआत करते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र नवजागरण के अग्रदूत के रूप में देश की गरीबी, पराधीनता, अंग्रेजों के अमानवीय शोषण की कलई खोलने निकले थे। वे कभी कविता लिखते, उससे बात पूरी न होती तो नाटक की ओर मुड़ जाते। साथ ही व्यंग्य और निबंध भी चलते रहे। यानी विधाएं भारतेन्दु के लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं। वह कथ्य जरूरी था, जो वे जनता तक पहुंचाना चाहते थे। इसमें वे भाषा भी बदलते रहे। कभी ब्रज, तो कभी उर्दू, और वक्त पड़ा तो बांग्ला और अंग्रेजी भी।

असल में बहुमुखी प्रतिभा जैसे पद भारतेन्दु जैसे रचनाकारों के लिए ही बने हैं। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध सभी विधाओं में उनका योगदान अमूल्य है। हिन्दी-साहित्य के आधुनिक युग के प्रतिनिधि भारतेन्दु की संपादकीय-पत्रकारीय प्रतिभा का नमूना 'कविवचन सुधा', 'हरिश्चन्द्र मैगजीन', 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' और 'स्त्री बाला बोधिनी' जैसी पत्रिकाओं में मिलता है, जो उन्होंने अपने समय में निकालीं। 'स्त्री बाला बोधिनी' की ओर से अंग्रेजी पढऩे वाली महिलाओं को साड़ी भेंट दी जाती थी। यह पत्रिका उन दिनों महिलाओं की सखी के रूप में पेश की गई थी। पहले अंक में ही पत्रिका की ओर से घोषणा की गई कि- 'मैं तुम लोगों से हाथ जोड़कर और आंचल खोलकर यही मांगती हूं कि जो कभी कोई भली-बुरी, कड़ी-नरम, कहनी-अनकहनी कहूं उसे मुझे अपनी समझकर क्षमा करना, क्योंकि मैं जो कुछ कहूंगी सो तुम्हारे हित की कहूंगी।'

दिलचस्प है कि भारतेन्दु युग के लेखकों बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, उपाध्याय बदरीनाथ चौधरी प्रेमघन, लाला श्रीनिवास दास, बाबू देवकी नंदन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी में से ज्यादातर पत्रकार भी थे। इस तरह भारतेन्दु युग को साहित्यिक पत्रकारिता का युग भी कहा जा सकता है। इस दौर में हिंदी का पहला उपन्यास 'परीक्षा गुरु' लिखा गया, जिसके लेखक श्रीनिवासदास थे। हालांकि कुछ आलोचक श्रद्धाराम फुल्लौरी के उपन्यास 'भाग्यवती' को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं। इसी दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री का 'चंद्रकांता' तथा 'चंद्रकांता संतति' पाठकों के सामने आये। शिवप्रसाद सितारे हिन्द जैसे कहानीकार इसी युग में थे, जिनकी कहानी 'राजा भोज का सपना' आज भी महत्वपूर्ण है। भारतेन्दु उनके पास अंग्रेजी सीखने जाते थे। बाद में स्वाध्याय से भारतेन्दु ने संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी और उर्दू सीखीं।

भारतेंदु की विचारधारा पर भक्त कवियों का गहरा असर था। इन रचनाओं में जो जनपक्ष था उसे भारतेन्दु ने संवारा और नई परिस्थितियों में उसे विकसित किया। उनकी समाज सुधार संबंधी रचनाओं में भी भक्त कवियों की स्थापनाएं दिखाई देती हैं। भारतेन्दु ने जहां श्रृंगारिक कविताओं के लिए रीतिकालीन रसपूर्ण अलंकार शैली का इस्तेमाल किया तो वहीं भक्ति पदों में भावात्मक हो गये। अपनी समाज-सुधार संबंधी रचनाओं में वे व्यंग्य की शरण में गये तो देश-प्रेम की कविताओं में उद्बोधन का इस्तेमाल किया। इस तरह भारतेंन्दु अपने समय के इकलौते हरफनमौला रचनाकार थे।

कवि भारतेन्दु को हम 'दान-लीला', 'प्रेम तरंग', 'प्रेम प्रलाप', 'कृष्ण चरित्र' जैसे भक्ति काव्यों से जानते हैं। वहीं 'सतसई श्रृंगार', 'होली मधु मुकुल' में श्रृंगारिक काव्य का लुत्फ मिलता है। 'भारत वीरत्व', 'विजय-बैजयंती' और 'सुमनांजलि' में राष्ट्रप्रेमी भारतेन्दु को देखा जा सकता है। भारतीय नाट्य इतिहास में भारतेन्दु का नाम हमेशा आदर से लिया जाता रहेगा। उनके नाटक 'बंदर-सभा', 'बकरी का विलाप' और 'अंधेर नगरी चौपट राजा' हास्य-व्यंग्य और कटाक्ष का बेजोड़ नमूना हैं। नाटकीयता भारतेन्दु के जीवन में रची बसी विशेषता थी। तकरीबन 18 साल के अपने सार्वजनिक जीवन में भारतेंदु ने लगातार चौंकाया है। इस नाटकीयता को उनकी कृष्ण भक्ति से भी जोड़ा जा सकता है। कृष्ण के जीवन से प्रभावित भारतेंदु जीवन और छद्म के दर्शन के साथ लगातार खेलते रहे। यह उनके रचनाकर्म में भी दिखाई देता है। ब्रज भाषा में रचनाकर्म के दौरान भारतेंदु जी पर दोहरी जिम्मेदारी थी। उन्हें लोक के बीच काव्य-नाट्य की पैठ भी बनानी थी और भाषा के संस्कार भी विकसित करने थे। इसीलिए भारतेंदु जी की भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण संबंधी अशुद्धियां भी को मिलती हैं। हालांकि मुहावरों के सटीक प्रयोग और सरल व व्यवहारिक शैली इस कमी को खलने नहीं देती।

भारतेंदु के रचनाकर्म को समझने के लिए उनके विन्यास को भी देखना चाहिए। वे एक साथ कई भाषाओं में विचर रहे थे। हिदी के छंदों के अलावा उन्होंने उर्दू, संस्कृत, बंगला के पदों का भी भरपूर इस्तेमाल किया है। संस्कृत के बसंत तिलका, शार्दूल, विक्रीडि़त, शालिनी और हिंदी के चौपाई, छप्पय, रोला, सोरठा, कुंडलियां, सवैया भारतेन्दु के काव्य में बिखरे पड़े हैं। बंगला के पयार और रेखता की गजल भी भारतेन्दु के रचनालोक में मिलती है, तो कजली, ठुमरी, लावनी, मल्हार, चैती जैसे लोक-छंदों को भी उन्होंने बखूबी साधा।

अलंकारों के प्रयोग में भारतेंदु ने अपने युग में जो नजीर कायम की है, वह आने वाले कई दशकों तक परंपरा बनी रही। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और संदेह अलंकारों के प्रति भारतेंदु के लगाव के बारे में तो सभी जानते हैं। भारतेंन्दु ने शब्दालंकारों को भी अपने काव्य में भरपूर जगह दी है। साथ ही दो अलंकारों को साथ-साथ साधने में उनका कोई सानी दिखाई नहीं देता। उत्प्रेक्षा और अनुप्रास की ही योजना देखिये: -
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए।।
हैरत की बात यह है कि जिस 'कवि वचन सुधा' को आठ वर्ष तक भारतेन्दु ने अपना खून-पसीना दिया, 1885 में जब भारतेन्दु का निधन हुआ तब उनमें ना तो कोई शोक समाचार था और न ही श्रद्धांजलि की दो पंक्तियां। कह सकते हैं कि भारतेन्दु अपने आसपास के लोगों से ही छले गये, लेकिन उन्होंने कभी विश्वास करना नहीं छोड़ा। आखिर नवजागरण के अग्रदूत को ऐसा ही होना था।

लगे हाथ भारतेन्दु जी की रचनाओं का आस्वाद भी लिया जाये। कविता के बिंबों, नाटकों के मारक व्यंग्य और गद्य के उत्कृष्ट नमूनों से तो हिंदी समाज परिचित ही है। भारतेन्दु ने कुछ मुकरियां भी लिखी है। मुकरियों से हिंदी समाज को पहले पहल खडी बोली के पहले कवि अमीर खुसरो ने परिचित कराया। अमीर खुसरो की मुकरियों (जिसमें पहले कही बात का अंत में खंडन सा करके उत्तर दिया जाता है) की परंपरा को आगे बढाते हुए भारतेन्दु जी ने अपने समय पर तीखे व्यंग्य किये। कुछ विद्वान कबीर की उलटबांसियों को भी मुकरी की श्रेणी में रखते हैं, जबकि पहेली व बूझ अबूझ शैली भी कविता की इसी शैली से मिलती जुलती है। बहरकैफ अभी हम इनके भेदों में न जाते हुए भारतेन्दु जी की मुकरियों को देखते हैं।

सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व न झूठी तेजी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।


तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।
आँखौ फूटे भरा न पेट ।
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।


सुंदर बानी कहि समुझावै ।
बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।
दयानिधान परम गुन-आगर ।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।


सीटी देकर पास बुलावै ।
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।


धन लेकर कछु काम न आव ।
ऊँची नीची राह दिखाव ।
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।


मतलब ही की बोलै बात ।
राखै सदा काम की घात ।
डोले पहिने सुंदर समला ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सिख[1] अमला ।
↑ 'भारतेन्दु समग्र' में सिख लिखा है, लेकिन हो सकता है यह प्रूफ़ की ग़लती हो और शब्द सखि ही हो ।

रूप दिखावत सरबस लूटै ।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।


भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।
जाहिर बातन मैं अति तेज ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।


सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
तरह तरह की बात सुनाव ।
घर बैठा ही जोड़ै तार ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।


एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
जनमावै ऐसा मजबूत ।
करै खटाखट काम सयाना ।
सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।


नई नई नित तान सुनावै ।
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।
नित नित हमैं करै बल-सून ।
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।


इनकी उनकी खिदमत करो ।
रुपया देते देते मरो ।
तब आवै मोहिं करन खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।


लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।
देस देस डोलै सजि साज ।
क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।


मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धन सब कुछ लूटै ।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।