एक अकेला दिन और चंद चालू खबरें

अभी-अभी टीवी ऑन किया है। पता चला यमुना अपने हिंसक रूप में घरों की और बढ़ रही है। एक टीवी रिपोर्टर तिब्बती मार्केट की बस्ती में छतों में सांस लेती जिंदगी को पकडऩे की कोशिश कर रहा है। एंकर उसे भयावहता की तस्वीरें और तीखी खींचने के लिए उकसाती है। जब वह रिपोर्टर बहुत ज्यादा नहीं चीख पाता तो एंकर दूसरी खबर की ओर बढ़ जाती है, जिसमें लारा दत्ता और महेश भूपति के सहारे बांधने की कोशिश की जाती है। चैनल चेंज किया तो कश्मीर गये प्रतिनिधिमंडल की आकृतियां नुमायां हुईं। 39 सदस्यीय सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल, सुनने में अच्छा लगता है। नाम और चेहरे सामने आते हैं, तो यकीन डिगने लगा कि कोई हल निकलेगा। कश्मीर की पूरी समस्या के बीच यह चंद लाइनों का क्षेपक सा है। सरकारों को गंभीर दिखाने की कोशिश में इस तरह के प्रतिनिधिमंडलों की लंबी श्रृंखला हम देख चुके हैं। फिर चैनल बदलता हूं, गणपति बप्पा, 20 हजारी सेंसेक्स, अयोध्या, चैंपियंस लीग के बीच पता चला कि भारत दुनिया की तीसरी बड़ी ताकत बना गया है। ताकत में भारत का शेयर आठ फीसदी है, जो अमेरिका की 22 फीसदी और चीन की 12 फीसदी के बाद सबसे ज्यादा है। यूरोपीय यूनियन की संयुक्त ताकत 16 फीसदी को भी देखें तो चौथी सबसे बड़ी ताकत! गरीबों की सबसे बड़ी तादाद, शिक्षा में सबसे पिछड़े और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे देश के लिए यह मजाकिया खबरें जब तक राहत पहुंचाती हैं। गर्व करने के लिए जब कुछ नहीं होता तो ऐसे ही तमगों को हासिल किया जाता है। इससे पहले भी हम कनाडा में भारतीय ने फहराया परचम और फिजी में भारतीय की कामयाबी पर निहाल हुए हैं।

बुखार बढऩे लगा है और मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि क्या करना चाहता हूं। खबरें एक ऊब पैदा कर रही हैं और कोफ्त भी। मातिल्दा की 'माई लाईफ विद पाब्लो नेरूदा' उठाता हूं, दो पन्ने भी नहीं पढ़े गये और अब सिगरेट सुलगाये सड़क का जीवन देखने की गरज से बालकनी में आ गया। आती-जाती गाडिय़ों और सामने स्कूल की छुट्टी के बाद गुजरते कुछ समय के लिए ध्यान खींचते हैं, फिर यह भी किसी बेरंग चित्र की तरह हिलती-डुलती आकृतियों में तब्दील हो गये।

हवा के थपेड़े तेज होने लगे तो भीतर आता हूं, कल रात की जो शराब बची थी उसे हलक से उतारते हुए उस घड़ी को कोसता हूं जब इतवार में कविता सुनने गया था। देर रात करीब 3 बजे लौटने तक बुखार साथ हो लिया था। फायदे और नुकसान के तराजू में तौलता हूं तो नुकसान हिस्से आता है। काव्य पाठ में मंगलेश जी बुझे-बुझे लगे। विनीत कहते हैं, कि यह बीते दो सालों से उनके भीतर की उथल-पुथल से निर्मित उदासी है, जो कविताओं में भी पसरी हुई थी। हालांकि उन्होंने नई कविताएं सुनाने का जोखिम उठाया था। खुद विनीत ने पहले से सुनी हुई कविताएं ही सुनाई थीं। विनीत भाई की चार कविताएं, रंजीत वर्मा जी दो कविताएं, मिथलेश जी की पांच कविताएं और मंगलेश जी की पांच कविताओं के बाद वीरेन दा ने 11 कविताएं सुनाई थीं। कोई नई कविता नहीं मिली। मोहन दा ने वहां भीमसेन त्यागी की डायरी के हिस्से सुनाये थे। जिनमें अज्ञेय के बारे में गंभीर टिप्पणी थी। मदन कश्यप जी का सुझाव था कि इसे पुन: प्रकाशित करना चाहिए। अज्ञेय को प्रशंसा के पीछे भागते व्यक्ति के रूप में जानना कभी मेरे लिए तकलीफदेह नहीं रहा। उनकी बुनावट में यह एक सामान्य बात है। वे जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे वहां प्रशंसा पाने के लिए कोई भी काम छोटा नहीं होगा।

इसके बाद जया जी ने गोर्की की 'मां' से मृत्यु संबंधी पंक्तियां सुनाईं। मौत के बाद दिलों में जिंदा रहने वाले लोगों के लिए थी यह पंक्तियां। हाल ही में कॉमरेड अनंत लागू पर संदर्भ, इंदौर की ओर से प्रकाशित पुस्तिका के कवर पर छपी पंक्तियां। पर एक टायर फटा और मैं इस याद से बाहर आ गया। यह सब सोचते हुए लग रहा था, वहीं संजीव के घर में हूं। झटके से यहां बिस्तर पर पहुंच गया। नींद भी नहीं आ रही है। मैं आंख बंद करके किताबों की तरफ हाथ बढ़ाता हूं। पूरनचंद्र जोशी की 'परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम' हाथ आती है। मैं क्या पढऩा चाहता हूं यह पता नहीं है, इसलिए जो सामने आ जाये उसी को पढऩा ठीक रहेगा, इस गरज से अंदाज से पेज खोलता हूं। 31वां पन्ना सामने आया। मैं इससे तारतम्य बैठाने के लिए 30वें पन्ने पर नजर डालता हूं। जोशी जी माक्र्सवादी विश्लेषणों को वास्तविकता मानने वालों पर खफा हो रहे हैं। आर्थिक विश्लेषण करते हुए वे विचारों के भौतिक आधार से अलग स्वतंत्र दृष्टियों से फिसलते हुए स्थापित करते हैं कि क्लासिकल माक्र्सवाद के बजाय भारत में स्तालिन का उग्र माक्र्सवाद ज्यादा पनपा और माक्र्सवादी यह भूलने लगे कि भौतिक आधार परिवर्तन की सीमाएं ही डिटरमिन यानी निर्धारित करता है, लेकिन इन सीमाओं के अंतर्गत परिवर्तन लाने में तो मनुष्य यानी मनुष्य की वैचारिक अथवा मानसिक प्रक्रियाओं की ही प्रधान भूमिका होती है। 'मैन मेक हिस्ट्री, बट नॉट ऐज दे विल' में मनुष्य को ही भौतिक आधार की सीमाओं के अंतर्गत परिवर्तन की सक्रिय शक्ति बताया गया है। यह भी मानना पड़ेगा कि माक्र्सवादियों ने माक्र्स की उन अंतर्दृष्टियों को वैज्ञानिक विश्लेषण का आधार बहुत कम बनाया जो विचार, मूल्य या मानसिक प्रक्रियाओं की सामाजिक परिवर्तन में भूमिका पर प्रकाश डालती हैं।

वे आगे लिखते हैं, 'स्तालिनवाद ने अनेक प्रकार से विचार और व्यवहार दोंनों में उग्र भौतिकवादी रुझान को ही माक्र्सवाद के रूप में प्रतिष्ठित किया, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य या मानवीय चेतना को उचित प्रतिष्ठा न देने की इस स्तालिनवादी परंपरा के भयंकर परिणाम हुए। उग्र भौतिकवादी रुझान की चरम परिणति ऐसे 'अवतारवाद' में हुई जिसे रूसियों ने 'व्यक्तिपूजा' (cult of personality) की संज्ञा दी। व्यक्ति पूजा ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के संदर्भ में स्तालिन के पितृ-संरक्षक और कठोर तथा नृशंस-उत्पीड़क, द्विमुखी रूप में मध्ययुगी अवतारवाद की मूल परंपराओं और संस्कारों को पुनर्जीवित कर दिया। दूसरी ओर उग्र भौतिकवाद के संदर्भ में आर्थिक संकट या वर्ग संघर्ष द्वारा स्वमेव होने वाले समाज-परिवर्तनों की धारणा ने एक प्राकृतिक नियम का ही रूप ले लिया। भौतिकवाद की इन दोनों विकृतियों ने ऐसे भागयवाद को जन्म दिया, जिसमें एक व्यक्ति-विशेष (जैसे स्तालिन) समष्टि की जाग्रत शक्ति का प्रतीक ही नहीं, बल्कि समष्टि के अनुशासन से स्वतंत्र, निरंकुश रूप से समाज का नियंता या भाग्यविधाता बन बैठा।'

मैं नतीजे निकालने की जल्दबाजी में नहीं हूं। फिलवक्त दिमाग भी साथ नहीं दे रहा है, लेकिन फिर भी जोशी जी के निशाने पर कौन है यह साफ दिख रहा है। मैं अपने निशाने को दुरुस्त करता हूं और नेट की दुनिया में चला आता हूं।