सचिन श्रीवास्तव
लोकसभा चुनाव इन दिनों लोगों की दिलचस्पी का विषय बना हुआ है और हो भी क्यों न आखिर 2019 में देश के अगले पांच साल का भविष्य तय तो होना ही है। साथ ही देश के मौजूदा समय के सबसे चर्चित नेता और यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में देश फिर जाएगा या लौटकर कांग्रेस के अतिलोकप्रिय अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के हाथों में कमान होगी, या फिर चुनावी गठबंधनों से कन्फ्यूज जनता बीती सदी के आखिरी दशक जैसे तीसरे, चौथे मोर्चे को ही कहेगी, लो कर लो जो करना है। हैं! पता ही नहीं अभी तो यानी सब जगह असमंजस ही है।
बहरहाल, ये तो मई के आखिर तक पता चल ही जाएगा और धैर्य की कमी भारतीय जनता में है नहीं। सो चार पांच महीने तक तेल और तेल की धार को देखने में कोई हर्ज नहीं।
अभी मार्के की बात ये है कि लोकसभा चुनाव, मोदी, राहुल जैसे मसले चर्चा में खूब हैं और बीच बीच में ये बुआ भतीजा भी तो खेल को मजेदार बना देते है। इसी का लाभ लेकर अपने न्यूज रूमों के दाड़ी वाले और बगैर दाड़ी के बुजुर्ग, डाई कराकर उम्र छुपाते अधेड़, बिना बात के तीन घंटे बोलने वाले महारथी और नए—नए लिख्खाड़ बने जउये छौने पूरी श्रद्धा से यह बताने, जताने, समझाने में लगे हुए हैं कि फलां जगह से भाजपा जीतेगी और अलां जगह से कांग्रेस या सहयोगियों को फायदा होगा।
अब सवाल ये है कि दिल्ली की सर्दी, भोपाल की नमी और लखनउ की सरगर्मी से बाहर न झांकने वाले ये बूढे जवान पता कैसे कर लेते हैं कि कहां किसकी लहर चल रही है और किसकी जमीन खिसक रही है।
कसम से मेरे जैसा कमअक्ल पूरे विधानसभा चुनाव में खम ठोककर भोपाल और आसपास थोड़ा बहुत घूमफिरकर और करीब 150 सीटों पर करीबी निगाह रखकर यह नहीं कह पाया कि इस सीट पर ये वाले नेताजी जरूरई जीत जाएंगे।
अमां किसे बेवकूफ बनाते हैं। विधानसभा क्षेत्र में भी जब कन्फ्यूजन की हवा पुरवाई सी बह रही हो, वैसे माहौल में दिल्ली से बैठे बैठे हासन और अलथूर, चालाकुडी के लोकसभा क्षेत्रों की जीत—हार सूंघने वालों की नाक पर रश्क होता है। बिल्कुल रश्क ए कमर इस्टाइल का। हर बूथ पर अपने दस—दस जमीनी कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट लेने के बावजूद भाजपा—कांग्रेस तो सीधे—सट्ट बता नहीं पाती हैं कि भैया यहां से अपन पक्का निकल गए और चार अपने वालों से बात करके भाई लोग बना देते हैं सरकारें। हैरत है यार।
सच में मतलब यार हमको पता है कि तुम तीन सीढ़ियां चढ़ते हुए हांफने लगते हो। हवाई जहाज से नीचे उतरते नहीं हो। लोगों से बातचीत का दायरा ये है कि जो तारीफ करेगा उसी की सुनोगे। अपनी अवधारणा से अलग जाती बात से ऐसे मुंह बिदकाते हो कि हमाई सुनार गली का सुअर भी पानी मांगे। फिर पता कौन सी मशीन से करते हो कि हियां ये जीतेगा और हुआं वो हारेगा। का व्हाट्सएप पर चलती लहर से।
नहीं मतलब बताओ आप कि लोकसभा में होते हैं कम से कम सात आठ विधानसभा क्षेत्र, विधानसभा में 200 से 300 तक या उससे भी ज्यादा बूथ। फिर देश में पांडे जी, शर्मा से लेकर महिला, अल्पसंख्यक, दलित, अगड़े—पिछड़े कितने धड़े हैं ये खुद सरकारों को नहीं पता। और समाजशास्त्रीय आकलन कहां का! भारतीय समाज के बारे में वैसे भी कहते हैं कि यहां समूहों के उपसमूह भी इतने भारी भरकम हैं कि सरकारें पलट दें। उस पर इतने संवेदनशील कि कभी एक बयान तो कहीं प्याज के दाम पर तक सरकार ले डूबें तो कभी आपातकाल को भी दो बरस में भूल बैठें।
तो भई लोग अपन तो ऐसे हालात में बस चुप्पी साधेंगे और कहते रहेंगे कि नतीजे चौंकाने वाले होंगे। यानी चित्त भी अपनी, पट्ट भी अपनी और अंटा अपने... सांसद साहब का। और नहीं तो क्या
और अंत में आदतन एक सलाह
अरे सुधर जाओ रे। ये जनता है। अगर अपनी अल्ल बल्ल के बजाय कुछ जमीन पर जाकर हालात का जायजा लो तो समझ भी बनेगी और कह सकोगे कि जनता जो फैसला लेगी सबके हित में लेगी।
जय हिंदी
जिंदाबाद
लोकसभा चुनाव इन दिनों लोगों की दिलचस्पी का विषय बना हुआ है और हो भी क्यों न आखिर 2019 में देश के अगले पांच साल का भविष्य तय तो होना ही है। साथ ही देश के मौजूदा समय के सबसे चर्चित नेता और यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में देश फिर जाएगा या लौटकर कांग्रेस के अतिलोकप्रिय अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के हाथों में कमान होगी, या फिर चुनावी गठबंधनों से कन्फ्यूज जनता बीती सदी के आखिरी दशक जैसे तीसरे, चौथे मोर्चे को ही कहेगी, लो कर लो जो करना है। हैं! पता ही नहीं अभी तो यानी सब जगह असमंजस ही है।
बहरहाल, ये तो मई के आखिर तक पता चल ही जाएगा और धैर्य की कमी भारतीय जनता में है नहीं। सो चार पांच महीने तक तेल और तेल की धार को देखने में कोई हर्ज नहीं।
अभी मार्के की बात ये है कि लोकसभा चुनाव, मोदी, राहुल जैसे मसले चर्चा में खूब हैं और बीच बीच में ये बुआ भतीजा भी तो खेल को मजेदार बना देते है। इसी का लाभ लेकर अपने न्यूज रूमों के दाड़ी वाले और बगैर दाड़ी के बुजुर्ग, डाई कराकर उम्र छुपाते अधेड़, बिना बात के तीन घंटे बोलने वाले महारथी और नए—नए लिख्खाड़ बने जउये छौने पूरी श्रद्धा से यह बताने, जताने, समझाने में लगे हुए हैं कि फलां जगह से भाजपा जीतेगी और अलां जगह से कांग्रेस या सहयोगियों को फायदा होगा।
अब सवाल ये है कि दिल्ली की सर्दी, भोपाल की नमी और लखनउ की सरगर्मी से बाहर न झांकने वाले ये बूढे जवान पता कैसे कर लेते हैं कि कहां किसकी लहर चल रही है और किसकी जमीन खिसक रही है।
कसम से मेरे जैसा कमअक्ल पूरे विधानसभा चुनाव में खम ठोककर भोपाल और आसपास थोड़ा बहुत घूमफिरकर और करीब 150 सीटों पर करीबी निगाह रखकर यह नहीं कह पाया कि इस सीट पर ये वाले नेताजी जरूरई जीत जाएंगे।
अमां किसे बेवकूफ बनाते हैं। विधानसभा क्षेत्र में भी जब कन्फ्यूजन की हवा पुरवाई सी बह रही हो, वैसे माहौल में दिल्ली से बैठे बैठे हासन और अलथूर, चालाकुडी के लोकसभा क्षेत्रों की जीत—हार सूंघने वालों की नाक पर रश्क होता है। बिल्कुल रश्क ए कमर इस्टाइल का। हर बूथ पर अपने दस—दस जमीनी कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट लेने के बावजूद भाजपा—कांग्रेस तो सीधे—सट्ट बता नहीं पाती हैं कि भैया यहां से अपन पक्का निकल गए और चार अपने वालों से बात करके भाई लोग बना देते हैं सरकारें। हैरत है यार।
सच में मतलब यार हमको पता है कि तुम तीन सीढ़ियां चढ़ते हुए हांफने लगते हो। हवाई जहाज से नीचे उतरते नहीं हो। लोगों से बातचीत का दायरा ये है कि जो तारीफ करेगा उसी की सुनोगे। अपनी अवधारणा से अलग जाती बात से ऐसे मुंह बिदकाते हो कि हमाई सुनार गली का सुअर भी पानी मांगे। फिर पता कौन सी मशीन से करते हो कि हियां ये जीतेगा और हुआं वो हारेगा। का व्हाट्सएप पर चलती लहर से।
नहीं मतलब बताओ आप कि लोकसभा में होते हैं कम से कम सात आठ विधानसभा क्षेत्र, विधानसभा में 200 से 300 तक या उससे भी ज्यादा बूथ। फिर देश में पांडे जी, शर्मा से लेकर महिला, अल्पसंख्यक, दलित, अगड़े—पिछड़े कितने धड़े हैं ये खुद सरकारों को नहीं पता। और समाजशास्त्रीय आकलन कहां का! भारतीय समाज के बारे में वैसे भी कहते हैं कि यहां समूहों के उपसमूह भी इतने भारी भरकम हैं कि सरकारें पलट दें। उस पर इतने संवेदनशील कि कभी एक बयान तो कहीं प्याज के दाम पर तक सरकार ले डूबें तो कभी आपातकाल को भी दो बरस में भूल बैठें।
तो भई लोग अपन तो ऐसे हालात में बस चुप्पी साधेंगे और कहते रहेंगे कि नतीजे चौंकाने वाले होंगे। यानी चित्त भी अपनी, पट्ट भी अपनी और अंटा अपने... सांसद साहब का। और नहीं तो क्या
और अंत में आदतन एक सलाह
अरे सुधर जाओ रे। ये जनता है। अगर अपनी अल्ल बल्ल के बजाय कुछ जमीन पर जाकर हालात का जायजा लो तो समझ भी बनेगी और कह सकोगे कि जनता जो फैसला लेगी सबके हित में लेगी।
जय हिंदी
जिंदाबाद