माधुरी दीक्षित ने हीरोइन से अदाकार तक की अपनी यात्रा में खूब नाचा है. और इसी नृत्य ने उन्हें तारिका से स्टार बनाया. अपनी दूसरी वापसी यानी तीसरी पारी में परिपक्व हुई हैं. माधुरी पर फिदा कई लोग नहीं जानते कि अबोध के पहले वे शशि कपूर, मीनाक्षी शेषाद्री और शर्मिला टैगोर अभिनीत फिल्म स्वाति के जरिए सिने दर्शकों से रू ब रू हो चुकी थीं. अपने पहले दस साल के कैरियर में 57 फिल्में करने वाली माधुरी ने 1997 में दिल तो पागल है के बाद दर्शकों के सामने आने की आवृत्ति बढा दी थी. उसके बाद 1998 में घरवाली बाहरवाली में स्पेशल अपीरियंस के अलावा वजूद और 1999 में महज आरजू के जरिए ही उन्होंने बॉक्स आफिस की मदद की. 2000 में पुकार और मकबूल फिदा हुसैन की गजगामिनी. 2001 में ये रास्ते हैं प्यार के और लज्जा और फिर 2002 में देवदास और हम तुम्हारे हैं सनम के बाद के बाद वे रुपहले पर्दे से रूठी थीं. आजा नच ले महज उनकी वापसी ही नहीं है. कलाकार माधुरी का एक और मील का पत्थर भी है. अपनी अदाकारी के अनुभव के साथ माधुरी ज्यादा बेहतर कलाकार हुईं हैं यह बात उनके किरदारों से भी जाहिर होती है. दिल तो पागल है की पूजा और वजूद की अपूर्वा चौधरी में कमर्शियल और आर्ट का फर्क ही नहीं था, बल्कि शाहरुख-करिश्मा की को-एक्टर का नाना पाटेकर के कद के साथ खडा होना भी शामिल है. फिर पुकार की अंजलि और लज्जा की जानकी के अलावा देवदास की चंद्रमुखी भी कलाकार के तौर पर सम्मान दिलाने वाले किरदार रहे.
आजा नच ले
बहुत अच्छा लगता है जीतना. लडाई कैसी भी हो जीत का स्वाद मीठा ही होता है. यह स्वाद तब जुबान को और प्यारा लगता है जब लडाई जीतने में बहुत कुछ खोना न पडे. बल्कि हासिल ज्यादा हो. सब कुछ अंत में ठीक हो जाने का सातवें दशक का फार्मूला हिंदी फिल्म के लिए एक जरूरी सीन होता है. दुख भारतीय मानस के लिए अंत नहीं होता है. यानी दुखांत हमारी आंखें देख नहीं पातीं. लैला मजनूं की कहानी देख रहे शामली की आंखों से निकला पानी भी यही कहता है.
असल में आजा नच ले ब्रेख्त के एलीनेशन सिद्धांत का ही एक और रूप है. मंच पर चल रही कहानी से अलग दर्शक इसे अन्य अर्थों में ले रहा था. एक बोर आदमी की अदाकारी से लेकर बचपन की सहेली का पति से विद्रोह और मंच के मजनूं से अलग दीया के प्रेम में कराहते प्रेमी से दो पॉलिटीशियन का एक साथ एक ही जगह एक ही मुद्दे की एक परिणीती पर ताली बजाना......... यह सब कुछ आजा.... के फलक को बढाता है. जो इस फिल्म में महज थियेटर देखने जाएंगे उन्हें फिल्म ठीक नहीं लगेगी. कुछ को माधुरी बूढी भी नजर आ सकती है. लेकिन जो 36 व्यंजन की थाली में से अपनी पसंद चखना चाहते हैं वे पैसा वसूल कर लेंगे. जी हां मैं भारतीय दर्शक की ही बात कर रहा हूं, जिसके लिए थिएटर जीवन नहीं जीवन का एक हिस्सा भर है.
असल में आजा नच ले ब्रेख्त के एलीनेशन सिद्धांत का ही एक और रूप है. मंच पर चल रही कहानी से अलग दर्शक इसे अन्य अर्थों में ले रहा था. एक बोर आदमी की अदाकारी से लेकर बचपन की सहेली का पति से विद्रोह और मंच के मजनूं से अलग दीया के प्रेम में कराहते प्रेमी से दो पॉलिटीशियन का एक साथ एक ही जगह एक ही मुद्दे की एक परिणीती पर ताली बजाना......... यह सब कुछ आजा.... के फलक को बढाता है. जो इस फिल्म में महज थियेटर देखने जाएंगे उन्हें फिल्म ठीक नहीं लगेगी. कुछ को माधुरी बूढी भी नजर आ सकती है. लेकिन जो 36 व्यंजन की थाली में से अपनी पसंद चखना चाहते हैं वे पैसा वसूल कर लेंगे. जी हां मैं भारतीय दर्शक की ही बात कर रहा हूं, जिसके लिए थिएटर जीवन नहीं जीवन का एक हिस्सा भर है.
जहां तक एक्टिंग का सवाल है तो माधुरी तो अपने फार्म में हैं ही दिव्या दत्ता, अक्षय खन्ना और इरफान के अलावा कोंकणा ने अपनी रेंज दिखाई है. इस सांवली कलाकार ने नाक पोंछते हुए अपनी विशिष्ट संवाद शैली से जो हिलोर उठाई है उसमें कब लैला का चेहरा तामीर हो गया-पता ही नहीं चला. एक और कलाकार की चर्चा बेहद जरूरी है वह है रणवीर सौरे. याद है एक छोटी सी लव स्टोरी का मनीषा कोईराला का प्रेमी. जो उस किशोर को न डांट पाता है न मारने का ताव ला पाता है. बस थप्पड से अपना गुस्सा निकाल देता है. मिक्स डबल्स, भेजा फ्राई और हनीमून ट्रेवल्स में उसने दिखाया है कि लाउड हुए बिना कैसे काम किया जाता है. चाय भी आपकी और हम भी आपके की मासूमियत कितनी आसानी से सपने देखती है यह कोई कस्बे का मध्यवर्गीय लडका ही जान सकता है. नहीं लगता यह अपने ही बीच का लडका.
हां मजनूं अपने भीतर वह इश्क की तडफ न ला सका, जिसकी दरकार थी. दाडी ने मामला बचा लिया वरना यह कडी कमजोर थी. असम में जी को बाबरा कर देने की कैस की तडफ में आधा चांद कम लगता है और पूरा चांद कम होने लगता है. यहां विसाल हो तो दिल धडकता है कि महबूब चला न जाए और हिज्र में मन बेचैन रहता है कि वस्ल की रात कब आएगी. अपना मजनूं यहीं चूक गया. वह चौधरी की हुक्मउदूली तो कर गया लेकिन मोहब्बत में डूब न सका. रघुवीर यादव, विनय पांडे और अखिलेंद्र मिश्र बस खुद को दोहरा ही पाए.
इट्स आल अबाउट पॉलिटिक्स
अंजता थियेटर रहेगा या मॉल बनेगा. नृत्य और कला को समर्पित एक मंदिर फिर जी उठेगा या पिज्जा बर्गर खाते जोडों की बिंदास लाइफ को संस्कृति बनाया जाएगा. कुल मिलाकर कला और पैसे, आस्था और व्यावसायिकता, अपने वजूद और ग्लोबल आंधी की कसमकश है आजा नच ले. ये दो संस्कृतियों का टकराव है दो सिस्टम्स की जंग. जाहिर है यहां दो पॉलिटिक्स भी हैं. और ध्यान दीजिए यहां पक्ष और विपक्ष एक ही हैं, जो मॉल बनाना चाहता है वही थियेटर भी जिंदा रखना चाहता है. यानी विरोध की राजनीति भी अब उनकी जेब में है. कुछ और धुंध छांटते हैं. रोशनी डालिए. थोडा पीछे जाइए. आठवें दशक में एंग्री यंग मेन पूरे सिस्टम से अकेला भिड जाता है. एक अकेला आदमी खून से लथपथ और सामने अग्निपथ. यह सेफ्टी वॉल्व था. गांव को साहूकार से बचाते और माफियाओं से लडते एंग्री यंग मेन की जंग एक जमीन के टुकडे को मॉल से बचाने में सिमट गई, पर राजनीति वही है. सेफ्टी वॉल्व को लीक करने की राजनीति, प्रतिरोध का छद्म खडा करने की राजनीति. जिसके आगे सब कुछ ध्वस्त हो जाता है. यह अविश्वसनीय कारनामा होते देखना हमें सुकून पहुंचाता है और फिर कोई विजय दीनानाथ चौहान दीया का रूप धरकर हमें जिताकर चला जाता है. अब लोग हिंसा नहीं देखते. यह बात शो करने वाले जानते हैं. हिंसा प्रतिरोध के लिए जरूरी नहीं है. प्रतिरोध सिस्टम के भीतर रहकर किया जाना चाहिए. यही है प्रतिरोध का बाजार, जिसमें पक्ष और विपक्ष एक ही हैं. आप खुस हो लीजिए मि. चौझर बोर नहीं रहे. बिजनेसमेन पति प्यार करना सीख गया. नाक पोंछती अनोखी के लिए इमरान की दिल धडकने लगा. एकतरफा प्यार ने जलेबी से मजनूं का विशेषण दे दिया. एमपी साहब ने पुलिस को अपना काम ईमानदारी से करने का हुक्म सुना दिया है. पुलिस भी जो नाटक देखना चाहता है उसे कोई रोक न पाए और जो नहीं देखना चाहता उसे जबरन ले न जा पाए इसके लिए मुस्तैद है. सब कुछ अच्छा हो गया और क्या चाहिए? अब कोई प्रतिरोध नहीं. प्रतिरोध करना है तो हमारी शर्तों पर, यानी चमत्कार की हद तक.