
न्यू मार्केट के पुरानेपन को देखने के लिए जरा-सा पीछे चलना होगा। पांचवें दशक की शुरुआत तक। ये वो वक्त था जब रोशनपुरा चौराहा यानी तब का रोशनपुरा नाका भोपाल की आखिरी हद हुआ करता था। ठीक उसी तरह जैसे रायसेन नाका भोगदा पुल पर था और जिंसी चौराहा हुआ करता था औबेदुल्लागंज नाका। और इस तरफ आएं तो लालघाटी के बाद सीहोर-इंदौर नाका था और डीआईजी बंगले से पहले बैरसिया नाका। ये हदबंदी 47 के बाद की भोपाल कमिश्नरी की थी। तब रोशनपुरा नाके की ओर से जलाऊ लकडि़यों से भरी गाडि़यां आती थीं और इमारती लकड़ी के ट्रक- बढ़ते शहर की खुराक बनने के लिए। नाके के बाद ही जंगल शुरू हो जाता था, जिसमें शेर भी पाए जाते थे। नवाब यहां शिकार के लिए आते थे। माता मंदिर से आगे चले जाइये मौलाना आजाद इंजीनियरिंग कॉलेज के नीचे की तरफ जो मुर्गीखाना है उसके पास नवाबी शिकारगाह के कुछ हिस्से मिल जाएंगे। और अगर गौर से सुनेंगे तो `बोदा बंधे है हुजूर का.....´ गीत की कुछ पंक्तियां भी कानों में पड़ जाएंगी। शेर जंगल में बसे लोगों पर हमले करने लगे। इसी दौरान नवाब सिकंदर जहां बेगम को आदमखोर शेर मारने पर 5 रुपए ईनाम की घोषणा करनी पड़ी और बाद में शाहजहां बेगम के जमाने में ईनाम की रकम बढ़ाकर 20 रुपए कर दी गई। बाद में नवाबों ने शिकार बंद कर दिया. यह हमीदुल्ला खां के जमाने में हुआ.
भोपाल का मध्यप्रदेश की राजधानी बनना भी न्यू मार्केट के साथ जुड़ा अहम वाकया है। राजधानी की घोषणा होने के बाद पॉलिटेक्निक चौराहे से शहर ने बढ़ना शुरू किया। बंगले बने, कई भवन बने और बसने लगा टीटी नगर। बल्लभ भवन अरेरा हिल पर बनी पहली इमारत थी और इसके बाद बिड़ला मंदिर और उसका म्यूजियम भोपाल के हिस्से बने।
लब्बो-लुबाब यह कि मियां नाम की ताजगी से गाफिल न हो जाइयेगा। यहां का नयापन तो उस माहौल का है, जो हर रोज आपके पहुंचने से ताजा हुआ करता है।