वह नए साल के पहले महीने के आखिरी हफ्ते की एक सर्द शाम थी। सूरज ढलान पर था और उसे थोड़ी देर में सोने जाना था। इस वक्त हम
बड़ी झील के किनारे की तरफ से श्यामला हिल की ऊंचाई नाप रहे थे। यह सोचते हुए कि दो सौ साल पहले यहां आकर रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग हमारी आमद का बुरा न मान जाएं। हमारी दिलचस्पी पहाड़ी की उन गुफाओं में थी, जिनमें यहां के पहले बाशिंदों ने अपना जीवन शैलचित्र के रूप में पत्थरों पर उकेरा था। साथ ही हम देखना चाहते थे कि पुरखे किन घरों में सपने बुनते थे। अब इन शानदार कला नमूनों के हिस्सों को 30 वर्षीय मानव संग्रहालय बचा-बढ़ा रहा है। सो कह सकते हैं कि हम इंदिरा गांधी मानव संग्रहालय जा रहे थे। श्यामला हिल की पहचान बन चुका मानव संग्रहालय अपनी पैदाइश के बारे में ज्यादा नहीं जानता, लेकिन 5 जून 1978 के बाद का एक-एक दिन उसकी हवा में तैर रहा है। सन् 1970 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ और 1972 में मानव विज्ञान संघ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से वन्य संपदा, संस्कृति और मानव इतिहास को बचाने, बताने और बढ़ाने के लिए इस संग्रहालय की स्थापना की अपील की थी। सन् 1972 में स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगांठ पर कई नई परियोजनाओं पर विचार किया जा रहा था और मामला आगे बढ़ा। शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय को श्यामला हिल्स का सवे की जिम्मेदारी दी गई। 1976 में
सर्वे की रिपोर्ट आई और सन् 77 में 197 एकड़ क्षेत्र को मानव संग्रहालय बनाने के निर्देश दिए गए, जो पांच जून 1978 को अपनी समूची परिकल्पना के साथ सामने आया। इस वक्त हम तमिलनाडु से लेकर असोम तक के आदिवासी समुदायों की जीवनशैली को बताने वाले घरों के बीच थे। हवा में नमी थी और सर्द झोंके पूरी शरीर को कांटेदार बना रहे थे। टोडा समुदाय के घर में घुसने के लिए हम घुटनों के बल थे। इस घर के बाहर जूते उतारने के लिए कोई तख्ती नहीं लगी थी, इसके बावजूद हम नंगे पांव थे- आदिवासी परंपरा की दहलीज पर एक अंजान हाथ ने हमारे जूते उतार दिये थे। यह सुबूत था कि यहां आदिवासी जनजीवन को महसूस किया जा सकता है। पेड़, मिट्टी और घास के इस चमत्कृत कर देने वाले माहौल में एके तिवारी हमारी जिज्ञासाएं शांत कर रहे थे। उन्होंने बताया कि यहां देश के हर हिस्से के आदिवासी समुदायों के घरों की देखभाल उन्हीं के वंशज करते हैं। इस वक्त हम बीथी संकुल की ओर बढ़ रहे थे। लाइब्रेरी और प्रशासनिक इमारत दायीं ओर पीछे छूट चुकी थीं और भरे पैरों से हम बीथी-मिथक संकुल के सहारे सैकड़ों साल पीछे लौट रहे थे।