यह जो अब में बुदबुदा रहा हूं एक आखिरी लंबी कविता का पहिला हिस्सा है. मैं जानता हूं कि इस वक्त सिर्फ तुम ही तुम ही इसे सुन रहे हो. मुंगावली में दोस्तों को गरियाते शशिकांत, मनीष, अमित, राहुल, विशाल और सुबोध. अशोकनगर में नदियों में डूबते हरिओम राजोरिया,पंकज दीक्षित, नीरज, अर्चना मैम और सीमा जी. भोपाल में अपने अपने काम में मस्त मनोज पमार, कार्तिक दा, राजू नीरा, भरत, जॉनी, प्रसून,प्रशांत दुबे, सचिन गोस्वामी, अशफाक, संदीप नाईक, शिवनारायण गौर, सुनील गुप्ता जी, अरुण दा, मंतोष, विजय शुक्ला, प्रवीण, जाहिद मीर, अजीत जी, सूर्यकांत जी, पीपी सिंह सर, दीक्षित जी, ललित भाई. दिल्ली में दौडते-भागते मनीष, अनवर, चेतन त्रिवेदी, कपिल, रजनीश, मोहन, संदीप, संतोष, सुधाकर, सत्यप्रकाश, विश्वदीपक, विजय झा और पशुपति दा. रांची में अपनी अलाली को नए रंग देते अश्विनी पंकज, विनय भूषण, सत्यप्रकाश चौधरी, फैसल अनुराग, घनश्याम जी, जेब अख्तर, निराला, नदीम अख्तर और रामप्रकाश त्रिपाठी. जमशेदपुर में पांव हिलाते रंजीत जी और गौरव. विजयवाडा में सपने देखती नागश्री. भागलपुर में उंनीदे पुष्य मित्र और विनय तरुण. मुजफ्फरपुर में रंगीनीयत बरकरार रखते एम अखलाक और बसंत दा. मेरठ में धूप सेंकते यशपाल जी, अखिलेश, मनोज झा जी, रमेंद्र और रंजीत. जयपुर में लोगों से गपियाते प्रवीण, महावीर राठी और नीलिमा. लुधियाना में बैठे आदित्य, उदय, अनूप, कुलजिंदर, अबरार, मुकेश मिश्रा, एलएन पाराशर, प्रदीप अवस्थी, कुमार अभिमन्यु, सुरजीत सैनी और राजीव जी. चंडीगढ में सो रहे अजय गर्ग, दिनेश भट्ट और शायदा आपा. पानीपत में आंखें मलते अमित गुप्ता, अमरदीप और आलोक. ग्वालियर में हाथों को मलते आशेन्द्र दा और पवन करण. इंदौर में कहकहे लगाते रफीक भाई, मुकेश जी, अभय नेमा और विजय चौधरी जी. बरेली में सडकों पर हांफते रहमान. सिंहेश्वर में पानी में जीवन तलाशते रूपेश. मुंबई में सूरज की ओर भरपूर नजर से देखते सेवियो रोड्रिक्स, अनुराग द्वारी, शिरीष खरे और अजय ब्रहात्मज जी. जबलपुर में सिगरेट फूंकते विकास परिहार. गुना में उधेडबुन में लगे विष्णु शर्मा. आगरा में कागजों से उलझे प्रेम और संदीप. जालंधर में खबरें चीरते रमेश शर्मा. सहरसा में किताबों से वादे निभाते मनीष मनोहर. कानपुर में क्रिकेट की गेंद उछालते जितेन्द्र और राजा. गांधीधाम में फिल्मों पर बहस करती कोमल और गुडगांव में वर्चुअल स्पेश रचते राहुल मोदी के पास दूसरे बेहद जरूरी काम हैं, जिन्हें पूरा करना अनिवार्य है. तुम्हें बताया था न कि ये वे लोग हैं जिनसे मिलकर मैं बना हूं. इनमें से कई तो मेरी शक्ल पर उभरी एक उदासी को कहकहे में बदलने के लिए बडे से बडा जंगी करतब कर देते थे और कई मेरे एक ठहाके पर कुर्बान होने की सी अदा में बाहें उछाल देते थे. यह बीते वक्त की बातें हैं, लेकिन आज उनके कानों में यह कविता कोई असर नहीं डालेगी क्योंकि आज में सिर्फ तुमसे ही बात करना चाहता हूं. तो कभी न खत्म होने या शायद अभी खत्म होने वाली इस आखिरी कविता का पहिला हिस्सा तुम्हारे लिए लिख रहा था, लिख रहा हूं और लिखता रहूंगा---
वह एक देश में रहता था/जिसे उसने घर माना था/वह घर से बाहर नहीं जाना चाहता था/लेकिन पूरे घर को देखना चाहता था जी-भरकर/ भटकन थी वह/जिसे आवारगी का मुलम्मा चढाया गया/ उसे किसी की जरूरत नहीं थी/ठीक उसी तरह जैसे किसी को उसमें दिलचस्पी नहीं थी/ वह कभी भागता था/ कभी सुस्ताता था/ भागने और सुस्ताने के बीच/ उसने एक लय पकड रखी थी/ वह गाता था हर गाना उसी लय में कभी वह आल्हा गाता
रो रो मल्हना बात सुनाई हम पै चढ़ै पिथौरा राय
नगर महोबा उन धिरवा लओ फाटक बन्द दये करवाय
विपत्ति हमारी मेटन के हित तुम आल्हा को ल्यावो मनाय
मल्हना बोली कातर हुई के, जगनिक संकट होय सहाय
धन्य जनम है वा क्षत्री को परहित सीस देव कटवाय
और कभी पाब्लो नेरूदा को गुनगुनाता
I like it when you're quiet.
It's as if you weren't here now,
and you heard me from a distance,
and my voice couldn't reach you.
It's as if your eyes had flown away from you,
and as if
your mouth were closed
because I leaned to kiss you.
इसके अलावा उसके गीतों में शहर होते थे, लोग होते थे और उदासी का भरापूरा चित्र होता था/ जिसे कोई भी नाम दिया जा सकता था.
उसे लोगों की शक्लें याद नहीं रहती थी/ उनकी तो बिल्कुल ही नहीं जिन्हें वह बहुत प्यार करता था/ उसकी आंखों के ठीक सामने एक चेहरा था/ खूब गोल मटोल और हंसी से भरपूर/ वह लोगों को उसी चेहरे के पीछे देखता था/ किसी का चेहरा उस खास चेहरे से बडा होता तो वह थोडा दूर हो जाता/ इस तरह वह चेहरा सामने वाले के चेहरे पर फिट बैठता/ और फिर उसी तरह कोई छोटे चेहरे वाला आदमी देखता तो उसके करीब पहुंच जाता/अपनी आंखों के सामने रहने वाले चेहरे के कद का करने.
इसे आप यूं समझ सकते हैं कि/ वह बडे चेहरे वालों से थोडा दूर और छोटे चेहरों के थोडा नजदीक था.अब थोडा साफ करते हैं/ यह उस व्यक्ति के बारे में हैं/ जिसने अरसे से सूरज न डूबते देखा था न उगते/ जब सूरज उगने की फिराक में होता तो वह आंखें बंद किए अपने कमरे में किन्हीं सपनों में रंग भर रहा होता/ और सूरज जब बुझता था तब वह चांद की आमद की हडबडी में रहता/ आप समझ ही गए होंगे कि उसे सूरज पसंद नहीं था, जैसे दूसरी दीगर चीजें उसे पसंद नहीं थी/ और चांद से उसने दोस्ती गांठ रखी थी/ यहां एक और दिल्चस्प बात यह है कि उसके प्रिय कवि ने चांद पर कुछ सबसे अच्छी कविताएं लिखी थीं/ और वह हर समय उन्हें जुबान पर फेरता रहता था/ हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि चांद के कारण उसे वह कवि पसंद था/ या कविताओं के कारण उसकी दोस्ती चांद से पक्की हुई थी/ हालिया समय से वह कुछ पीछे का और आने वाले समय से वह कुछ आगे का था/ इसलिए उसकी आवाज, चाल, बातचीत और यहां तक कि प्रेम की इबारतें भी अजीब किस्म की थीं/ वह कभी खूब सिगरेट पीता था और एक दिन अचानक उसने सिगरेट पीना बंद कर दिया/ ठीक उसी तरह जैसे उसने शराब से तौबा कर ली थी/ इसे इत्तेफाक ही कहेंगे यह ठीक उसी समय हुआ/ जब उसने प्रेम में खुद को पूरी तरह डुबो रखा था/ वह अपने प्रेम में किसी और को शामिल नहीं करना चाहता था/ यहां तक कि बीते दिनों अपनी प्रेमिका को भी उसने बेदखल कर दिया प्रेम से/ लोग मानते हैं कि उसकी प्रेमिका ऊब गई थी उसकी टेडी मेडी घुमक्कडी से/ हकीकतन उसने अपने प्रेम में सिर्फ खुद को रखा/ इस लिहाज से यह भी कह सकते हैं कि वह बेहद स्वार्थी था.
हम उसकी बात का एक सिरा यहां से छोडते हैं और दूसरे सिरे पर पहुंचते हैं/ जहां वह एक ईमानदार बेटा बनने की जल्दबाजी में सब कुछ तेजी से बदलना चाहता था/ और नागरिक होने की जिम्मेदारी निवाहने के लिए खूब किस्से बुनना चाहता था/ उसके लिए समय कभी न खत्म होने वाली सजा थी/ इसे कम करने के लिए जिंदगी की मोमबत्ती वह दोनों सिरों से जलाए था/ उसकी मां, पिता, बहनें, भाई और यहां तक कि उसे चाचा-मामा कहने वाले बेहद छोटे छोटे बच्चे एक जिम्मेदार शख्स मानते थे/ और उम्मीद करते थे कि एक दिन वह लौट आएगा और कौवों को पूरियां खिलाएगा/ जिससे पितरों का ऋण चुक जाएगा/ जबकि वह सारे पितरों का कर्ज चुकता कर उन पर नए कर्ज चढाने के बारे में सोचता था/ उसकी सोच के अरण्यों में कई गुफाएं थीं/ जिनका मुंह हर वक्त खुला रहता था/ वह एक से दूसरी में बडे मजे से घूमता था/ और किसी में फिर नहीं जाता था/ उसे लगता था कि इनमें से कई और गुफाओं के दरवाजे बनेंगे, जिनमें वह लंबे समय तक बिना दोहराव के जिंदा रह सकेगा.
अब उसकी गलतफहमी कहिए या वक्त की तेज चाल का निर्मम दांव/ वह एक अंधेरे में फंसा हुआ था/ और अपने तमाम खिलंदडेपन के बावजूद/ बेहद धीमी आवाज में एक प्रार्थना बुदबुदा रहा था/ कि ये सूरज बुझता क्यों नहीं जो सुलगता है सीने में उम्र भर से.
इसे कर्मों का फल कहें कि जो बोया सो काटे वाली कहावत/ कि सारे कलाकार जा चुके
थे/ लाइटें बुझ चुकी थीं और आखरी कदमों की आवाज भी अब सुनाई देनी बंद हो गई थी/अब उसकी धीमी आवाज उसी के कानों तक पहुंच रही थी/लेकिन यह वैसी नहीं थी जो गले से निकलती थी/ यानी आसपास कुछ था जो आवाज को बदल रहा था/कभी-कभी अपवर्तन अभी-अभी परावर्तन सा.